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साल भर हो गया शायद, मेरी अंतिम कहानी को छपे… ऐसा नहीं है कि इस बीच ऐसा कुछ हुआ नहीं जो लिखने के काबिल हो मगर कुछ व्यस्तता रही और कुछ लिखने का मन भी नहीं हुआ…
मेरी आखरी कहानी मैडम एक्स और मैं में मैंने बताया था कि निदा का घर छोड़ने के बाद मैंने कपूरथला में ठिकाना बना लिया था, लेकिन वहाँ भी ज्यादा नहीं टिक सका और इसके बाद मैं निशात गंज में एक भली फैमिली के यहाँ रहने लगा था।
इस बीच कुछ समस्याओं के चलते मैंने मोबाइल कंपनी की नौकरी भी छोड़ दी थी और कुछ दिन बेरोज़गारी के गुजरने के बाद एक प्राइवेट ब्रॉडबैंड कंपनी में नौकरी कर ली थी।
मुंबई, दिल्ली में ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद अब लखनऊ में दिल ऐसा लगा था कि छोड़ने का मन ही नहीं होता था। भले मेरा परिवार भोपाल में रहता हो लेकिन एक खाला कानपुर में रहती थी जो डेढ़ दो घंटों की दूरी पर था, तो कभी कभी मूड फ्रेश करने वहाँ चला जाता था।
घर बस एक बार गया था और वो भी बस दो दिन के लिए। लखनऊ में दिल ऐसा लगा था कि अब कहीं और रुकने का मन भी नहीं होता था।
कई दोस्त और जानने वाले हो गए थे और नौकरी भी ऐसी थी कि घूमने फिरने को भी खूब मिलता था और साथ ही आँखें सेंकने के ढेरों मौके भी सुलभ होते थे।
कभी चौक नक्खास की पर्दानशीं, कभी अलीगंज विकास नगर की बंगलो ब्यूटीज़, कभी अमीनाबाद की फुलझड़ियाँ तो कभी गोमती नगर की आधुनिकाएँ।
इस बीच मेरी दिलचस्पी का केंद्र दो लड़कियाँ रही थीं… एक तो जहाँ मैं रहता था वही सामने एक प्रॉपर्टी डीलिंग का ऑफिस था, वही बाहरी काउंटर पर बैठती थी।
मुझे नाम नहीं पता लगा, उम्र तीस की तो ज़रूर रही होगी, रंगत गेहुंआ थी, कद दरमियाना, सीना अड़तीस होगा तो कमर भी चौंतीस से कम न रही होगी, नितम्ब भी चालीस तक होंगे… नैन नक्श साधारण।
उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो एक्स्ट्रा आर्डिनरी हो, आकर्षण का केंद्र हो- एकदम मेरी तरह। एक आम सी लड़की, भीड़ में शामिल एक साधारण सा चेहरा और यही चीज़ मुझे उसकी ओर खींचती थी।
मैंने कई बार उसे रीड करने की कोशिश की थी… ऐसा लगता था जैसे मजबूर हो, जैसे ज़बरदस्ती की ज़िंदगी जी रही हो, उसकी आँखों में थोड़ा भी उत्साह नहीं होता था और सिकुड़ी भवें या खिंचे होंठ अक्सर उसकी झुंझलाहट का पता देते थे।
मुझे भी उसने जितनी बार देखा था इसी एक्सप्रेशन से देखा था लेकिन फिर भी मुझे उसमें दिलचस्पी थी।
ऐसे ही एक दूसरी लड़की थी जो मेरे पड़ोस वाले घर में रहती थी। टिपिकल धर्म से बन्धी फैमिली थी… लड़की एक थी और लड़के दो थे, बाकी माँ बाप दादा दादी भी थे।
लड़की में दिलचस्पी का कारण ये था कि मुझे यहाँ रहते छः महीने हो गए थे लेकिन आज तक मुझे उसकी शक्ल नहीं दिखी थी… हमेशा सर से पांव तक जैसे मुंदी ही रहती थी।
अपने तन को ढीले ढाले कपड़ों से छुपाए रहती थी और खुले में निकलती थी तो उसके ऊपर से चादर टाइप कपडा भी लपेट लेती थी, सर पे भी स्कार्फ़ बांधे रहती थी।
घर से बाहर जाती थी तो हाथों को दस्तानों से, पैरों को मोज़ों से और आँखों को गॉगल्स से कवर कर लेती थी। यानि जिस्म का एक हिस्सा भी न दिखे…
पड़ोसी होने के नाते मैंने उसके हाथ पांव देखे थे- एकदम गोरे, झक्क सफ़ेद… या उसकी आँखें देखीं थीं… हल्की हरी और ऐसी ज़िंदादिल कि उनमें देखो तो वापस कहीं और देखने की तमन्ना ही न बचे।
कई बार मैंने उसकी आँखों में नदीदे बच्चों की तरह झाँका था और मुझे ऐसा लगता था जैसे उसके स्कार्फ़ से ढके होंठ मुस्कराए हों, लेकिन यह मेरा भ्रम भी हो सकता था क्योंकि मैं अपनी लिमिट जानता था।
भले मैंने उसकी शक्ल न देखी हो, उसके शरीर सौष्ठव का अनुमान न लगा पाया होऊं लेकिन उसके हाथ पैरों की बनावट, रंग और चिकनापन ही बताता था कि वो क्या ‘चीज़’ होगी और मैं ठहरा एक साधारण सा बन्दा, जिसमे देखने, निहारने लायक कुछ नहीं।
हालांकि मैं तीन चार बार उसके घर जा चुका था और वो भी उसके भाई के बुलाए… दरअसल उनके यहाँ भी ब्राडबैंड कनेक्शन था, भले उस कंपनी का नहीं था जहाँ मैं काम करता था लेकिन जब कुछ गड़बड़ होती थी तो मैं काम आ सकता था न।
कनेक्शन बॉक्स ऊपर छत पे लगा था और मैं अपनी छत से वहाँ पहुँच सकता था और उधर से गया भी था।
मन में उम्मीद ज़रूर थी कि शायद हाथ पैरों और आँखों से आगे कुछ दिख जाये लेकिन बंदी तो ऐसे किसी मौके पे सामने आई ही नहीं।
यह प्राकृतिक है कि जब आपसे कुछ छिपाया जाता है तो आपमें उसे देखने की प्रबल इच्छा होती है और यही कारण था कि आते जाते कभी भी वो मुझे कहीं दिखी तो मैंने दिलचस्पी दिखाई ज़रूर।
फिर अभी करीब दस दिन पहले मेरे ग्रहों की दशा बदली… शनि का प्रकोप कम हुआ।
उस दिन सुबह किसी काम पे निकलते वक़्त अपने ऑफिस तक पहुँच चुकी, उस साधारण मगर मेरी दिलचस्पी का एक केंद्र, लड़की से मेरा सामना हुआ था।
हमें तो संडे के दिन छुट्टी नसीब हो जाती थी, जो कि उस दिन था लेकिन उसे शायद अपनी ड्यूटी सातों दिन करनी पड़ती थी।
हमेशा की तरह नज़रें मिलीं, उसकी चिड़चिड़ाहट नज़रों से बयाँ हुई और जैसे कुछ झुंझलाने के लिए होंठ खुले… लेकिन फिर एकदम से चेहरे की भावभंगिमाएँ बदल गईं और खुले हुए होंठ मुस्कराहट की शक्ल में फैल गए।
मुझे लगा मेरे पीछे किसी को देख कर मुस्कराई होगी लेकिन पीछे देखा तो कोई नहीं था और फिर उसकी तरफ देखा तो वो चेहरा घुमा कर अपने ऑफिस में घुसने लगी थी।
मैं उलझन में पड़ा रुखसत हो गया। बहरहाल, ये मेरे सितारे बदलने की पहली निशानी थी।
फिर उसी रात पड़ोस के लड़के का फोन आया कि उसके यहाँ नेट नहीं चल रहा था, मुझे जांचने के लिये बुला रहा था, कह रहा था कि बहन को कुछ काम है और वो परेशान हो रही है।
उसी से मुझे पता चला कि दोनों भाई वालदैन समेत आज़म गढ़ गाँव गए थे किसी शादी के सिलसिले में और तीन चार दिन बाद आने वाले थे, घर पर बहन दादा दादी के साथ अकेली थी।
सुन कर मेरी बांछें खिल गईं।
उस वक़्त रात के नौ बजे थे। आज तो मोहतरमा को सामने आना ही पड़ेगा– बूढ़े दादा दादी तो नेट ठीक करवाने में दिलचस्पी दिखाने से रहे।
मैं ख़ुशी ख़ुशी उड़ता सा उसके घर के दरवाज़े पर पहुंचा और घन्टी बजाई।
अपेक्षा के विपरीत दरवाज़ा बड़े मियाँ ने खोला। मैंने सलाम किया और काम बताया तो उन्होंने वहीं से आवाज़ दी -‘गौसिया!’ तो उसका नाम गौसिया था।
वो एकदम से सामने आ गई… जैसे बेख्याली में रही हो, जैसे उसे उम्मीद न रही हो कि दादा जी किसी के सामने उसे बुला लेंगे और वो बेहिज़ाब सामने आ गई हो।
जैसे मैंने कल्पनाएँ की थी वो उनसे कहीं बढ़कर थी। अंडाकार चेहरा, ऐसी रंगत जैसे सिंदूर मिला दूध हो, बिना लिपस्टिक सुर्ख हुए जा रहे ऐसे नरम होंठ कि देखते ही मन बेईमान होकर लूटमार पर उतर आये और शराबी आँखें तो क़यामत थी हीं।
आज बिना कवर के सामने आई थी और घरेलू कपड़ों में थी जो फिट थे तो उसके उभरे सीने और नितम्बों के बीच का कर्व भी सामने आ गया।
सब कुछ क़यामत था- देखते ही दिल ने गवाही दी कि उल्लू के पट्ठे, तेरी औकात नहीं कि इसके साथ खड़ा भी हो सके, सिर्फ कल्पनाएँ ही कर!
जबकि वो मुझे सामने पाकर जैसे हड़बड़ा सी गई थी और अपने गले में पड़े बेतरतीब दुपट्टे को ठीक करने लगी थी।
दादा जी कुछ बताते, उससे पहले उसने ही बता दिया कि पता नहीं क्यों नेट नहीं चल रहा और उसी ने भाई को बोला था मुझे बुलाने को।
दादा जी की तसल्ली हो गई तो उन्होंने मुझे उसके हवाले कर दिया। वो मुझे जानते थे– अक्सर सड़क पे सलाम दुआ हो जाती थी, शायद इसीलिए भरोसा दिखाया, वर्ना ऐसी पोती के साथ किसी को अकेले छोड़ने की जुर्रत न करते।
वो मुझे वहाँ ले आई जहाँ राउटर रखा था। मैंने लाइन चेक की, जो नदारद थी… वस्तुतः मुझे प्रॉब्लम पता थी, शायद मेरी ही पैदा की हुई थी, पर फिर भी मैंने ज़बरदस्ती केबिल वगैरा चेक करने की ज़हमत उठाई।
‘कब से नहीं चल रहा?’ ‘शाम से ही!’ ‘पानी मिलेगा एक गिलास?’ ‘हाँ-हाँ क्यों नहीं!’
पानी किस कमबख्त को चाहिए था, बस टाइम पास करना था थोड़ा…
वो पानी ले आई तो मैंने पीकर ज़बरदस्ती थैंक्स कहा, वो मुस्कराई।
‘आपका नाम गौसिया है?’ ‘हाँ… क्यों?’ ‘बस ऐसे ही। पड़ोस में रहता हूँ और आपका नाम भी नहीं जानता।’ ‘तो उसकी ज़रूरत क्या है?’
‘कुछ नहीं।’ मैं उसके अंदाज़ पर झेंप सा गया- आप पढ़ती हैं?
‘हाँ, यूनिवर्सिटी से बी एससी कर रही हूँ। सुबह आपके उठने से पहले जाती हूँ और दोपहर में आती हूँ। घर वालों को तो जानते ही हैं। उन्नीस साल की हूँ और कोई बॉयफ्रेंड भी नहीं है, बनाने में दिलचस्पी भी नहीं। शक्ल और फिगर तो आज आपने देख ही ली… कुछ और रह गया हो तो कहिये वो भी बता दूँ?’
मैं बुरी तरह सकपका कर उसे देखने लगा, मुंह से एक बोल न फूटा।
‘आपको क्यों लगा कि मैं आपकी नज़रों को नहीं पढ़ पाऊँगी?’ उसने आँखे तरेरते हुए ऐसे कहा कि मेरा बस पसीना छूटने से रह गया। उफ़ ये लखनऊ की लड़कियाँ– सचमुच बड़ी तेज़ होती हैं।
‘सॉरी!’ मैंने झेंपे हुए अंदाज़ में कहा। ‘किस बात के लिए? इट्स ह्यूमन नेचर… आप यह दिलचस्पी न दिखाते तो मुझे अजीब लगता। एनीवे, नेट चल पाएगा क्या… या मेरे दर्शन पर ही इक्तेफा कर ली?’
‘राउटर में लाइन नहीं है। ऊपर बॉक्स चेक करना पड़ेगा। ‘ ‘चलिए!’ वो मुझे छत पे ले आई।
हालाँकि उसने जो तेज़ी दिखाई थी, उससे मैं कुछ नर्वस तो ज़रूर हो गया था, उसे खुद पर हावी होते महसूस कर रहा था। फिर भी मर्द था, हार मानने में जल्दी क्यों करना, देखा जाएगा- बुरा लगेगा तो आगे से नहीं बुलाएँगे।
‘जिस चीज़ को छुपाया जाता है उसे देखने जानने में ज्यादा ही दिलचस्पी होती है वरना मैं अपनी लिमिट जानता हूँ। लंगूरों के हाथ हूरें तब आती हैं जब वे बड़े बिजिनेसमैन, रसूखदार, या कोई सरकारी नौकरी वाले होते हैं और इत्तेफ़ाक़ से इस बन्दर के साथ कोई सफिक्स नहीं जुड़ा।’
‘आप खुद को लंगूर कह रहे हैं!’ कह कर वो ज़ोर से हंसी।
‘पावर सप्लाई ऑफ है… शायद नीचे ही गड़बड़ है।’ मैंने उसकी हंसी का लुत्फ़ उठाते हुए कहा। वहाँ जो पावर एक्सटेंशन बॉक्स था, उसमें लगे अडॉप्टर शांत थे, यानि सप्लाई बंद थी और यही मेरा कारनामा था।
नीचे जहाँ से उसे कनेक्ट किया था वहाँ ही गड़बड़ की थी। प्लग की खूँटी में दोनों तार इतने हल्के बांधता था कि कुछ ही दिन में वो जल जाएँ या निकल जाएँ और इस बहाने वे मुझे फिर बुलाएँ।
‘चलिए!’ उसने ठंडी सांस लेते हुए कहा।
‘बॉयफ्रेंड बनाने में दिलचस्पी क्यों नहीं। यह भी तो ह्यूमन नेचर के दायरे में ही आता है। मैं अपनी बात नहीं कर रहा। यूनिवर्सिटी में तो ढेरों अच्छी शक्ल सूरत वाले शहज़ादे पढ़ते हैं।’
‘मैं अपने नाम के साथ कोई बदनामी नहीं चाहती! मेरा एक भाई भी वहाँ पढ़ता है और इसके सिवा हमारे यहाँ शादी माँ बाप ही करते हैं और वो भी रिश्तेदारी में ही। किसी से रिश्ता बनाने का कोई फायदा नहीं जब उसे आगे न ले जाया जा सके और मेरा नेचर नहीं कि मैं किसी रिश्ते को सिर्फ एन्जॉय तक रखूँ!’
‘पर दोस्त की ज़रूरत तो महसूस होती होगी। इंसान के मन में हज़ारों बातें पैदा होती हैं, कभी ख़ुशी, कभी ग़म, कभी गुस्सा, कभी आक्रोश, और इंसान किसी से सब कह देना चाहता है। मन में रखने से कुढ़न होती है और उसका असर इंसान के पूरे व्यक्तित्व पर पड़ता है।’ यह बात कहते हुए मुझे उस दूसरी लड़की की याद आ गई जिसमे मुझे ऐन यही चीज़ें दिखती थीं।
‘हाँ, होती है और कुछ लड़कियाँ हैं भी पर फिर भी यह महसूस होता है कि मैं उनसे सब कुछ नहीं कह सकती… और किसी लड़के को दोस्त बनाने में डर लगता है क्योंकि मैं उन पे भरोसा नहीं कर पाती। आज हाथ पकड़ाओ तो कल गले पड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। दिन ब दिन उनकी ख्वाहिशें बढ़ने लगती हैं, वे अपनी सीमायें लांघने लगते हैं। दो बार मैं यह नाकाम कोशिश कर चुकी हूँ।’
हम नीचे आ गए जहाँ प्लग लगा था। मैंने उससे स्क्रू ड्राइवर माँगा और उसे खोल कर दुरुस्त करने लगा।
‘वैसे आप खुद को इतना अंडर एस्टीमेट क्यों करते हैं?’ उसने शायद पहली बार मुझे गौर से देखते हुए कहा।
‘कहाँ? नहीं तो। मैं जानता हूँ कि मैं क्या हूँ और मैं खामख्वाह की कल्पनाएं नहीं करता, न भ्रम पालता हूँ और इसका एक फायदा यह होता है कि मैं अपनी सीमायें नहीं लांघता कि कभी किसी की दुत्कार सहनी पड़े। अब जैसे आपने कभी मुझे दोस्त बनाया होता तो मैं हम दोनों के बीच का फर्क जानते समझते कभी अपनी सीमायें नहीं लांघता और न आपके हाथ से बढ़ कर गले तक पहुँचता।’
यह बात कहने के लिए मुझे बड़ी हिम्मत करनी पड़ी थी। इस बार वो कुछ बोली नहीं, बस गहरी निगाहों से मुझे देखते रही।
मैंने प्लग सही किया और सॉकेट में लगा दिया, सप्लाई चालू हुई तो राऊटर में भी लाइन आ गई। उसने लैप्पी के वाई फाई पे नज़र डाली, नेट चालू हो गया था।
‘तो मैं अब चलूँ?’ ‘खाना खा के जाने का इरादा हो तो कहिये बना दूँ।’ कहते हुए वो इतने दिलकश अंदाज़ में मुस्कराई थी कि दिल धड़क कर रह गया था।
मेरे मुंह से बोल न फूटा तो मैं मुड़ कर चल पड़ा।
वो मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आई थी और जब मुझे बाहर करके वापस दरवाज़ा बंद कर रही थी तो एक बात बोली ‘सोचूंगी।’ ‘किस बारे में?’
पर जवाब न मिला और दरवाज़ा बंद हो गया।
उस रात मुझे बड़ी देर तक नींद नहीं आई, जितनी भी बात हुई अनपेक्षित थी और शांत मन में हलचल मचाने के लिए काफी थी। उसकी आखिरी बात ‘सोचूंगी’ किसी तरह का साइन थी लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसका मकसद क्या था। बहरहाल मैं उतरती रात में जाकर सो पाया।
सुबह उठा तो अजीब सी कैफियत थी… आज सोमवार था और काम का दिन था। जैसे तैसे दस बजे जाने के लिए तैयार हुआ ही था कि फोन बज उठा। कोई नया नंबर था लेकिन जब उठाया तो दिल की धड़कने बढ़ गईं।
‘निकल गए या अभी घर पे हो?’ आम तौर पर एकदम किसी की आवाज़ को पहचानना आसान नहीं होता लेकिन गौसिया की आवाज़ कुछ इस किस्म की थी कि लाखों नहीं तो हज़ारों में ज़रूर पहचानी जा सकती थी।
‘घर पे हूँ… निकलने वाला हूँ, बताओ?’ ‘कोई बहाना मार के छुट्टी कर लो और इसी वक़्त मेरी छत पे आओ। दरवाज़ा खुला है, सीधे मेरे कमरे में आओ।’
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‘इस वक़्त?’ मेरा दिल जैसे उछल के हलक में आ फंसा, धड़कनें बेतरतीब हो गईं। ‘हाँ! वैसे छत पे कोई नज़र नहीं रखे रहता लेकिन फिर भी दिखावे के लिए मॉडम वाला बॉक्स खोलकर चेक कर लेना कि लगे कुछ कर रहे हो। आस पास वाले जानते ही हैं कि क्या काम करते हो।’
फोन कट हो गया।
यह मेरी कल्पना से भी परे था, मेरे गुमान में भी नहीं था कि मुझे कभी ऐसा मौका मिलेगा। पता नहीं क्या है उसके मन में?
बहरहाल मैंने ऑफिस फोन करके तबियत ख़राब होने का बहाना मारा और सीढ़ी से होकर ऊपरी छत पर आ गया।
मैंने आसपास नज़र दौड़ाई लेकिन कहीं कोई ऐसा नहीं दिखा जो इधर देख रहा हो। दोनों छतों के बीच की चार फुट की दीवार फांदी और उसकी छत पे पहुँच कर मॉडम वाला बॉक्स खोलकर ऐसे चेक करने लगा जैसे कुछ खराबी सही कर रहा होऊँ।
फिर उसे बंद करके सीढ़ियों के दरवाज़े पे आया जो कि खुला हुआ था और उससे होकर नीचे आ गया।
नीचे दो कमरे थे जिनके बारे में मुझे पता था कि एक उसके भाइयों का था और एक उसका।
मैंने उसके कमरे के दरवाज़े को पुश किया तो वो खुलता चला गया। और सामने का नज़ारा देख कर मेरी धड़कने रुकते रुकते बचीं।
वो हसीन बला सामने ही खड़ी थी… लेकिन किस रूप में??
उसके घने रेशमी बाल खुले हुए थे जो उसके चेहरे और कन्धों पे फैले हुए थे… गोरा खूबसूरत चेहरा कल की ही तरह बेपर्दा था और क़यामत खेज बात यह थी कि उसने कपड़े नहीं पहने हुए थे, उसने पूरे जिस्म पर सिर्फ एक शिफॉन का दुपट्टा लपेटा हुआ था, दुपट्टे से सीना, कमर, और जांघों तक इस अंदाज़ में कवर था कि आवरण होते हुए भी सबकुछ अनावृत था।
शिफॉन के हल्के आवरण के पीछे उसके मध्यम आकार के वक्ष अपने पूरे जलाल में नज़र आ रहे थे जिनके ऊपरी सिरों को दो इंच के हल्के भूरे दायरों ने घेरा हुआ था और जिनकी छोटी छोटी भूरी चोटियाँ सर उठाये जैसे मुझे ही ललकार रही थीं।
उनके नीचे पतली सी कमर थी जहाँ एक गहरा सा गढ्ढा नाभि के रूप में पेट पर नज़र आ रहा था और पेट की ढलान पर ढेर से बालों का आभास हो रहा था… वहाँ जो भी था, वे घने बाल उसे पूरी बाकायदगी से छुपाए हुए थे।
और जो आवरण रहित था वो भी क्या कम था- संगमरमर की तरह तराशा, दूध से धुला, मखमल सा मुलायम… उसकी पतली सुराहीदार गर्दन, उसके भरे गोल कंधे, उसकी सुडौल और गदराई हुई जांघें… उसमें हर चीज़ ऐसी ही थी जिसे घंटों निहारा जा सकता था।
मेरा खुला हुआ मुंह सूख गया था और साँसें अस्तव्यस्त हो चुकी थीं, जबकि वो बड़े गौर से मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
‘कल तुम कह रहे थे न कि तुम अपनी सीमायें जानते हो। मैंने तुम्हें दोस्त बनाया होता तो तुम हम दोनों का फर्क जानते समझते और अपनी सीमाओं को देखते हुए कभी मेरे हाथ से बढ़ कर मेरे गले तक न पहुँचते।’
‘तो?’ मेरे मुंह से बस इतना निकल पाया।
‘तो चलो मैंने तुम्हें अपना दोस्त समझो कि बना लिया और मेरा दोस्ती वाला हाथ तुम्हारे हाथ में है। मैं देखना चाहती हूँ कि तुम मेरे गले तक पहुँचते हो या नहीं।’
ओह ! तो यह बात थी, मेरा इम्तेहान हो रहा था।
भले उसे देखते ही मेरी हालत खराब हो गई थी, पैंट में तम्बू सा बन गया था लेकिन मैं कोई नया नया जवान हुआ छोरा नहीं था जिसका अपनी भावनाओं पर कोई नियंत्रण ही न हो।
तीस पार कर चुका था और ज़माने की भाषा में समझदार और इतना परिपक्व तो हो ही चुका था कि ऐसी किसी स्थिति में खुद को नियंत्रण में रख सकूँ।
जब तक क्लियर नहीं था तब तक मेरी मनःस्थिति दूसरी थी लेकिन अब मेरा दिमाग बदल गया।
वो मेरे सामने टहलने लगी और यूँ उसके चलने से उसके स्पंजी वक्षों और नितम्बों में जो थिरकन हो रही थी वो भी कम खतरनाक नहीं थी लेकिन मेरे लिए यह परीक्षा की घड़ी थी।
मैंने उसकी तरफ से ध्यान हटा कर उस दूसरी लड़की के बारे में सोचने लगा जो कल पहली बार मुझे देख कर मुस्कराई थी।
वो भी मुझे इसी कमी का शिकार लगती थी कि उसके पास अपने उदगार व्यक्त करने के लिए शायद कोई नहीं था और वो इस अभाव में मन ही मन घुटती रहती थी जिसका असर उसके स्वाभाव में दिखता था।
देखने से ही तीस से ऊपर की लगती थी लेकिन ज़ाहिरी तौर पर ऐसा कोई साइन नहीं नज़र आता था जिससे यह पता चलता कि वह शादीशुदा है। एक वजह यह भी हो सकती है उसके रूखे और चिड़चिड़े मिजाज़ की।
जो परिस्थिति मेरे समक्ष थी उसमें नियंत्रण का बेहतरीन तरीका यही था कि खुद को दिमागी तौर पर वहाँ से हटा कर कहीं और ले जाया जाए। यानि मेरा शरीर वहीं था लेकिन दिमाग कहीं और भटक रहा था और वो मुझे पढ़ने की कोशिश में थी।
जब उसने मेरी पैंट में आया तनाव ख़त्म होते देखा, साँसों की बेतरतीबी दुरुस्त होते और चेहरे पर इत्मीनान झलकते देखा तो जैसे फैसला सुनाने पास आ गई।
‘मैंने बहुत बड़ा कदम उठाया था लेकिन जाने क्यों मुझे यकीन था कि तुम वैसे ही हो जैसे मैं सोचती हूँ।’ उसने मेरी आँखों में झांकते हुए कहा।
‘कैसा?’ अब मुस्कराने की बारी मेरी थी।
‘जाओ, क्रासिंग वाले पुल के नीचे इंतज़ार करो, मैं दस मिनट में वहाँ पहुँच रही हूँ।’
‘ओके… पर जाने से पहले मेरे एक सवाल का जवाब दे दो कि अगर मैं नियंत्रण खो बैठता तो?’
‘तो मैं चिल्ला पड़ती और नीचे से दादा दादी आ जाते और तुम पकड़े जाते। कौन मानता कि मैंने तुम्हें बुलाया था।’ कहते हुए उसने दरवाज़ा बंद कर लिया।
यानि जवां जोश, अधीरता और परिपक्वता में यह फर्क होता है। मैंने बात जाने समझे बिना जल्दबाजी दिखाई होती तो गया था बारह के भाव। इस अहसास के साथ कि मैंने परीक्षा पास कर ली थी।
ख़ुशी ख़ुशी मैं जैसे गया था वैसे ही वहाँ से निकला और बाइक से निशातगंज पुल के नीचे पहुँच कर उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
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