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शेक्सपीयर जो अपने आपको बड़ा चाचा चौधरी समझता था, उसने कहा था कि बेशक गुलाब को अगर गुलाब की जगह किसी और नाम से पुकारा जाता तो क्या ? वो ऐसी भीनी भीनी खुशबू नहीं देता लेकिन टेम्स नदी के किनारे अँधेरे सीलन भरे कमरे में बैठ सिर्फ सस्ती रांडों को उधारी में चोद कर या उधारी न चुकाने पर सिर्फ मुठ मार मार कर इससे ज्यादा वो सोच भी क्या सकता था क्योंकि मेरी लाटरी तो सिर्फ नाम की वजह से ही निकली थी।
बात ज्यादा पुरानी नहीं, मेरी जवानी की शुरुआत के दिन थे…
चूँकि मेरा यह शहर मध्यभारत में मालवा के पठार पर बसा है, नए और पुराने को अपने में समेटे यह व्यावसायिक राजधानी होने के कारण कई प्रदेशों के लोग बेरोकटोक यहाँ आकर बसते गए जो अब कई संस्कृतियों का संगम सा बन गया है। बात चूँकि सच्ची है इस लिए स्थान नाम इन सब बंधनों से दूर आप को भरपूर आनन्द देने और किसी का राज़ न खोलने वाले अंदाज़ में इस किस्से का चित्रण करने की कोशिश की है क्यूंकि सभी की जिन्दगियाँ ऐसे अविस्मरणीय पलों को सहेजे बैठी है जो किसी को पता न चल जाए, इस डर से किसी से नहीं बांटते। मेरी कोशिश है, उम्मीद है, आपको पसंद आएगी जो एक घिसे पिटे ट्रैक पर कहानी पढ़ते हैं उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि उसमें जो सहज है, वही मैंने लिखा है जो मेरे साथ घटित हुआ…
तो हुआ दरअसल यह कि मेरी कालोनी शहर के पुराने हिस्से में आती है जहाँ कई पुराने परिवारों की ड्योढ़ीनुमा हवेलियाँ है जो राजवंश से भी जुड़े हैं, मेरे घर के सामने एक कम्पनी का स्टोर बंद पड़ा था क्योंकि कंपनी अब उसे इस्तेमाल नहीं करती थी। पिछले दिनों साथ में एक टेम्पररी टायलेट भी बना दिया गया और कंपनी के केशियर जो दक्षिण भारतीय थे अपनी पत्नी के साथ वहाँ रहने लगे, उनका नया मकान कहीं बन रहा था, बेटा दुबई में था और बेटी का कोई नर्सिंग कोर्स पूरा होने को था।
कंपनी का मालिक पिताजी का परिचित था, इस कारण हमारा परिवार उनके कहने पर उनका ख्याल रखता था जिससे उनका हमारे वहाँ आना जाना लगा रहता था। अंकल तो पापा से बाहर से मिल कर चले जाते थे, अकेलेपन की वजह से अक्सर आंटी हमारे वहाँ ही होती थी।
कुछ दिनों बाद मैंने गौर किया कि आंटी जब भी हमारे वहाँ आती, मेरे शार्ट्स में उभरे हुए लण्ड को निहारती रहती थी जो उनकी चिकनी त्वचा को देख कर बेकाबू हो जाया करता था, तो अब मुझे भी आंटी में थोड़ी रूचि होने लगी, जब भी रात में वो टायलेट में आती, उनके दरवाज़े की आवाज़ सुन कर मैं बालकनी में आ जाता और जब वो स्टोर में वापस जाने लगती तो मैं खांस या खंखार कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता लेकिन कभी वो पलट कर नहीं देखती।
अभी तक मोहल्ले की कई भाभियों, आंटियों और जवान होती नौकरानियों को में चोद चुका था, आंटी द्वारा मेरी यह अपेक्षा मुझ से सही नहीं जा रही थी। पहले मम्मी कुछ देने या उन्हें बुलाने का कहती तो मैं टाल देता था पर अब यह हाल था कि उनसे मिलने या सामीप्य का कोई मौका नहीं छोड़ता था।
आंटी को हिंदी नहीं आती थी पर इंग्लिश में काम चला लेती थी, कई बार में घर में उनके अनुवादक की तरह भी उनके साथ बैठ जाता था। चालीस बयालीस के लपेटे की यह श्यामल भरे भरे बदन वाली बड़े बड़े दूध से भरे शाही कटोरे सीने पर सजाये खुले दावत देते से महसूस होते थे, जब यह गजगामिनी गांड मटकाते चलती तो लौड़ा बाबुराम शार्ट्स में कोबरे सा फुंफकारने लगता और बिना उसके नाम की मुठ मारे संभाले नहीं संभलता, कभी कभी उनको छू लेता या बदन का कोई हिस्सा उनसे सटा लेता पहले तो चौंक कर देखती थी फिर बाद में ऐसा जताने लगतीं जैसे कुछ हुआ ही न हो, लेकिन कुछ बात बन नहीं रही थी।
लेकिन ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं ! जिसने चोदने और खोदने को लौड़ा दिया है उसी ने चूतों को भी सूखी खुजली दी है कि उन में बोरिंग करके पानी निकालें !
पिछले कुछ दिनों से हमारे शहर और फिर मोहल्ले में भी चैन खींचने की घटनाएँ बढ़ गई, मम्मी ने मुझे आंटी को सचेत करने को कहा क्योंकि भारत में सबसे ज्यादा सोना ये साऊथ वाली ही पहनती हैं, यहाँ तक कि उनकी पायल भी सोने की ही होती है, पर मैं उन्हें टालते से अंदाज़ में मैंने बिना उनकी ओर देखे कहा- अभी जल्दी में हूँ, बाद में समझा दूँगा।
मेरे इस व्यवहार से आंटी को बड़ा अजीब सा लगा पर मम्मी ने इस पर मुस्कुरा कर माहौल को सामान्य बना दिया।
कालेज के शुरु के दिन थे, कालेज से लौटकर अभी बाइक स्टैंड पर लगा ही रहा था कि पीछे से आंटी ने पुकारा, पहले ही कालेज की कमसिन कलियों ने लौड़े की माँ-भेन कर रखी थी, ऊपर से ठंडी आंटी जो भेनचोद इतनी गर्म है, पर बनती है। यह कहाँ से आ गई, अब इस उभरे लंड को कहाँ छुपाऊँ, भोसड़ी का जींस फाड़ने को बेताब है। सोच रहा था कि पापा फैक्टरी गए हैं, माँ सो रही होगी, मज़े से नई प्लेबाय मैगज़ीन जो आज ही दोस्त से छीन कर लाया था, देखकर मूठ मारूँगा।
“मुन्ना, मांजी सुबह क्या कह रही थी?” आंटी इंग्लिश में चहकी।
जब मैंने बताया तो ‘देवा देवा’ कह कर पेट पर हाथ रखा।
मैंने कहा- यहाँ हाथ क्यों रखा?
तो कहने लगी- सारा जेवर थैली में डाल के यहाँ गले में साउथ की स्टाइल में लटका रखा है।
मैंने कहा- दिखाओ !
तो कहने लगी- धत्त !! जा यहाँ से !
पर मैं जिद पर अड़ गया कि साउथ का स्टाइल क्या है।
इधर उधर देखते हुए जब कोई न दिखा तो आंटी ने तो थोड़ा सा कुरता उठाया। थैली किसने देखनी थी, सीधी ऊपर नज़र गई, अन्दर से ब्रेजियर में बंद कबूतरों के दर्शन हो गए। या तो इतने ही कड़क हैं या छोटी ब्रा पहनी हुई है, पास जाकर मैं थैली को छूने लगा तो चिहुँक कर हाथ झिड़का, जिससे कुरता हाथ से छूटा तो मेरा हाथ कुरते में रह गया, आंटी पीछे हटी तो बैलेंस बिगड़ा और मेरा एक हाथ अन्दर ही रह गया था उसमें उसका पूरा बूब आ गया। झटके से पीछे हटी तो कुरते की वजह से फिर उलझ कर मेरे पर गिरी तो उन्हें संभालने के चक्कर में दूसरा बोबा कुरते के बाहर से पूरे हाथ में समा गया।
ख़ैर वो संभली और बिना कुछ बोले अपने घर के अन्दर चली गई। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं !
मैं भी अपने कमरे में चला गया लेकिन नज़ारा भूले नहीं भूलता, चिकनी, चमकदार चमड़ी का स्पर्श और चिकना पेट आँखों में घूमता रहा, माँ का भोंसड़ा प्लेबाय मैगजीन का ! अन्दर आकर आंटी के नाम की इकसठ बासठ चालू ! कूद के मनी बाहर और असीम शांति का अनुभव !
हाथरस में जो मज़ा, वो किसी और में कहाँ ! आप भी आनन्द से बैठो, हाथ भी हिलता रहे।
कहानी जारी रहेगी…
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