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सरकारी अस्पताल में दो दिन का नसबंदी कैंप लगा। वहाँ आपरेशन कराने वालों का मेला सा लगा था। आपरेशन कराने वालों के साथ आए हुए लोगों की भी भारी भीड़ जमा थी।
लोगों के कंधों से टकराते हुए डाक्टर नर्सें और अन्य स्वास्थ्यकर्मी घूम रहे थे। सभी चाह्ते थे कि अधिक से अधिक नसबंदी आपरेशन हो जाएँ। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विभाग और सरकार भी यही चाहती थी।
दूसरे दिन दोपहर बाद प्रभारी डाक्टर के कमरे में एक लगभग 35 वर्षीया संभ्रान्त महिला दाखिल हुई। वह सीधे डाक्टर के पास पहुँची। वह बोली- डाक्टर साहब, मेरा भी नलबंदी आपरेशन करवा दीजिए।
डाक्टर ने उसे गौर से देखा, कस्बा बहुत छोटा सा था, आबादी बहुत कम ही थी, कस्बे के निवासी जाने पहचाने से होते थे। निजी क्लिनिक भी गिनती के थे सो कस्बे के लोग चाहे अमीर चाहे गरीब, सभी सरकारी अस्पताल में ही जाया करते थे। डाक्टर ने उसे पहचान लिया, उसके सामने एक इज्जतदार परिवार की महिला खड़ी थी जो अपनी नसबंदी का निवेदन कर रही थी। डाक्टर को ध्यान आया कि पिछले परिवार नियोजन कैंप में उसके पति का आपरेशन हो चुका था।
डाक्टर ने उसे समझाते हुए कहा- बहनजी, आपके पति का आपरेशन पिछले कैंप में हो चुका है। आपके आपरेशन कराने की कोई जरूरत नहीं है। पति का आपरेशन हो जाने के बाद पत्नी के आपरेशन की जरूरत नहीं रहती।
लेकिन वह महिला नहीं मानी। वह डाक्टर पर आपरेशन करने के लिए जोर डालने लगी।
डाक्टर ने उसे समझाने का भरसक प्रयास किया। मगर वह नहीं मानी। वह हठ करने लगी कि आपरेशन कराए बिना वह नहीं जाएगी।
प्रभारी डाक्टर के सामने गहरी समस्या आ खड़ी हुई। अब से पहले कभी इस प्रकार के हालात से जूझना नहीं पड़ा था। इस जाने माने परिवार की महिला को आखिर किस तरह से समझाया जाए।
कुछ देर में डाक्टर के कमरे में एक लेडी डाक्टर आई जो कैंप में जिले के बड़े अस्पताल से आई हुई थी। डाक्टर ने उस लेडी डाक्टरनी को सारी स्थिति से अवगत कराते हुए समझाने का कहा और खुद कमरे से बाहर निकल गया।
वह महिला डाक्टरनी से कहने लगी- डाक्टरनी साहिबा, आप मेरा आपरेशन करवा दें। मैं किस किस के आपरेशन का इंतजार करती रहूँगी? आपरेशन तो अकेले पति का हुआ है। मेरे तो एक जेठ दो देवर भी हैं। मैं बच नहीं पाऊँगी। सारे आरोप दुत्कार मुझे ही सहन करने पड़ेंगे। मुझे ही सुनने पड़ेंगे। वे ठहरे मरद। उनकी चलेगी। मेरी कौन सुनेगा?
उसकी आँखों में आँसू छलक आए- जेठ कीकर से और देवर नागफ़नी सा! वह रोती हुई बोली- आपरेशन करवाए बिना मैं नहीं लौटने वाली। आप मेरी हालत समझें। मेरी इज्जत आपके हाथ है। उसने डाक्टरनी के पैर पकड़ लिए। आखिर डाक्टरनी ने उसका दर्द समझा, वह भी तो एक औरत ही थी।
कुछ देर बाद डाक्टरनी ने अस्पताल के प्रभारी डाक्टर को समझाया। प्रभारी डाक्टर असमंजस में फंस गया। उसके सामने एक घिनौना सच खड़ा था। सभ्रान्त घर में कैसे ऊग आए कीकर और नागफ़नी !
वह सोचने लगा कि इस समस्या से निपटने के लिए क्या किया जाए? एक अजीब कहानी उसके सामने खड़ी थी। डाक्टर के मौन विचार को डाक्टरनी ने तोड़ा।
डाक्टरनी ने डाक्टर को समझाया। दोनों ने समझदारी का निर्णय किया।
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