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उसके बाद तो हम दोनों ही पहरों आपस में एक दूसरे का हाथ थामें बतियाते रहते। पता नहीं एक दूजे को देखे बिना हमें तो जैसे चैन ही नहीं आता था।
धीरे धीरे हमारा प्रेम परवान चढ़ने लगा। अब सिमरन ने अपने बारे में बताना चालू कर दिया। उसके माँ बाप ने प्रेम-विवाह किया था, दोनों ही नौकरी करते हैं। कुछ सालों तक तो सब ठीक रहा पर अब तो दोनों ही आपस में झगड़ते रहते हैं।
सिमरन के 19वें जन्मदिन पर भी उन दोनों में सुबह सुबह ही तीखी झड़प हुई थी। और सिमरन का जन्मदिन भी उसी की भेंट चढ़ गया, सिमरन तो बेचारी रोती ही रह गई।
उसने बाद में एक बार मुझे कहा थी कि वो तो घर से भाग जाना चाहती है। कई बार तो वो इन दोनों को झगड़ते हुए देख कर जहर खा लेने का सोचने लगती है।
उसकी मम्मी उसे निक्की के नाम से बुलाती है और उसके पापा उसे सुम्मी या फिर जब कभी अच्छे मूड में होते हैं तो निक्कुड़ी बुलाते है।
गुजरात और राजस्थान में छोटी लड़कियों के इस तरह के नाम (निक्कुड़ी, मिक्कुड़ी, झमकुड़ी और किट्टूड़ी आदि) बड़े प्यार से लिए जाते हैं।
मैंने उसे पूछा था कि मैं उसे किस नाम से बुलाया करूँ तो वो कुछ सोचते हुए बोली ‘सिम… सुम्मी…? ओह… निकू… चलेगा?’ ‘निक्कुड़ी बोलूँ तो?’ ‘पता है निक्कुड़ी का एक और भी मतलब होता है?’ ‘क्या?’ ‘छट! गंदो दीकरो!… तू गैहलो छे के?’ (धत्त… तुम पागल तो नहीं हुए हो?) उसने शर्माते हुए कहा।
पता नहीं ‘निक्कुड़ी’ का दूसरा मतलब क्या होता है। जब कुछ समझ नहीं आया तो मैंने कहा ‘सिमसिम कैसा रहेगा?’ ‘ओह…?’ ‘अलीबाबा की खुल जा मेरी सिमसिम कि तरह बहुत खूबसूरत रहेगा ना?’
और हम दोनों ही हंस पड़े थे।
मैंने भी उसे अपने बारे में बता दिया। मेरी मॉम का एक साल पहले देहांत हो गया था और बापू सरकारी नौकरी में थे। मुझे होस्टल में भेजना चाहते थे पर मौसी ने कहा कि इसे +2 कर लेने दो फिर मैं अपने साथ ले जाऊँगी।
मेरा भी सपना था कि कोई मुझे प्रेम करे। दरअसल हम दोनों ही किसी ना किसी तरह प्रेम के प्यासे थे। हम दोनों ने अपने भविष्य के सपने बुनने शुरू कर दिए थे। पढ़ाई के बाद दोनों शादी कर लेंगे।
प्रेम का पूरा रंग दोनों पर चढ़ चुका था। और हमने भी किसी प्रेमी जोड़े की तरह एक साथ जीने मरने की कसमें खा ली थी।
दोस्तो! अब दिल्ली दूर तो नहीं रही थी पर सवाल तो यह था ना कि कब, कहाँ और कैसे? प्रेम आश्रम वाले गुरुजी कहते हैं कि पानी और लंड अपना रास्ता अपने आप बना लेते हैं।
अगले तीन दिन फिर सिमरन ट्यूशन से गायब रही। आप मेरी हालत का अंदाजा लगा सकते हैं ये तीन दिन और तीन रातें मैंने कैसे बिताई होंगी। मैंने इन तीन दिनों में कम से कम सात-आठ बार तो मुट्ठ जरूर मारी होगी।
आज तो सुबह-सुबह दो बार मारनी पड़ी थी। आप सोच रहे होंगे अजीब पागल है यार! भला सुबह-सुबह दो बार मुट्ठ मारने की क्या जरुरत पड़ गई। ओह… मैं समझाता हूँ। दरअसल आज नहाते समय मुझे लगा कि मेरे झांट कुछ बढ़ गए हैं। इन्हें साफ़ करना जरूरी है।
जैसे ही मैंने उन्हें साफ़ करना शुरू किया तो प्यारेलालजी खड़े होकर सलाम बजाने लगे। उनका जलाल तो आज देखने लायक था। सुपाड़ा तो इतना फूला था जैसे कि मशरूम हो और रंग लाल टमाटर जैसा। अब मैं क्या करता। उसे मार खाने की आदत जो पड़ गई थी। मार खाने और आंसू बहाने के बाद ही उसने मुझे आगे का काम करने दिया।
जब मैंने झांट अच्छी तरह काट लिए और अच्छी तरह नहाने के बाद शीशे में अपने आप को नंगा देखा तो ये महाराज फिर सिर उठाने लग गए।
मुझे उस पर तरस भी आया और प्यार भी। इतना गोरा चिट्टा और लाल टमाटर जैसा टोपा देख कर तो मेरा जी करने लगा कि इसका एक चुम्मा ही ले लूं। पर यार अब आदमी अपने लंड का चुम्मा खुद तो नहीं ले सकता ना? मुझे एक बार फिर मुट्ठ मारनी पड़ी।
ट्यूशन पर पहुँचने में मुझे आज देर हो गई। सिमरन मुझे सामने से आती मिली, उसने बताया कि प्रोफ़ेसर आज कहीं जाने वाला है नहीं पढ़ायेगा।
हम वापस घर के लिए निकल पड़े। रास्ते में मैंने सिमरन को उलाहना दिया- सिमसिम, तुम तीन दिन तक कहाँ गायब रही?
‘ओह… वो… वो… ओह… हम लड़कियों के परेशानी तुम नहीं समझ सकते?’ उसने मेरी ओर इस तरह देखा जैसे कि मैं कोई शुतुरमुर्ग हूँ। मेरी समझ में सच पूछो तो कुछ नहीं आया था।
पता नहीं आज क्यों सिमरन उदास सी लग रही थी। लगता है वो आज जरूर रोई है। उसकी आँखें लाल हो रही थी। ‘सिमरन आज तुम कुछ उदास लग रही हो प्लीज बताओ ना? क्या बात है?’ ‘नहीं कोई बात नहीं है’ उसने अपनी मुंडी नीचे कर ली। मुझे लगा कि वो अभी रो देगी।
‘सिमरन आज टेनिस खेलने का मूड नहीं है यार चलो घर ही चलते हैं?’ ‘नहीं मैं उस नरक में नहीं जाऊँगी?’ ‘अरे क्या बात हो गई? तुम ठीक तो हो ना?’ ‘कोई मुझे प्यार नहीं करता ना मॉम ना पापा। दोनों छोटी छोटी बातों पर झगड़ते रहते हैं!’
‘ओह।’ मैं क्या बोलता। ‘ओके अगर तुम कहो तो मेरे घर पर चलें? वहीं पर चल कर पढ़ लेते हैं। अगले हफ्ते टेस्ट होने वाले हैं। क्या ख़याल है?’
मुझे लगा था सिमरन ना कर देगी। पर उसने हाँ में अपनी मुंडी हाँ में हिला दी।
मैंने मोटरसाइकिल चालू करने की कोशिश की, वो तो फुसफुसा कर रह गई।
सामने एक कुत्ता और एक कुतिया खड़े थे। अचानक कुत्ते ने कुतिया की पीठ पर अपने पंजे रखे और अपनी कमर हिलाने लगा। सिमरन एक तक उन्हें देखे जा रही थी। अब कुतिया जरा सा हिली और कुत्ते महाराज नीचे फिसल गए और वो आपस में जुड़ गए।
मेरे लिए तो यह बड़ी उलझन वाली स्थिति थी। सिमरन ने मेरी ओर देखा। मैंने इस तरह की एक्टिंग की जैसे मैंने तो कुछ देखा ही नहीं।
शुक्र है मोटरसाइकिल स्टार्ट हो गया, हम जल्दी से बैठ कर अपने घर ब्रह्मपोल गेट की ओर चल पड़े।
घर पर कोई नहीं था। बापू काम पर गए थे और शांति बाई तो वैसे भी शाम को आती थी। हम दोनों ताला खोल कर अन्दर आ गए। सुम्मी सोफे पर बैठ गई। मैंने उसे पानी पीने का पूछा तो वो बोली
‘प्रेम वो कुत्ता कुतिया देखो कैसे जुड़े थे?’ ‘ओह… हाँ?’ मुझे हैरानी हो रही थी सिमरन इस बात को दुबारा उठाएगी।
‘पर ऐसा क्यों?’ ‘ओह… वो आपस में प्रेम कर रहे थे बुद्धू?’ ‘ये भला कौन सा प्रेम हुआ?’ ‘ओह… छोड़ो ना इन बातों को?’
आप मेरी हालत का अंदाज़ा लगा सकते हैं। अकेली और जवान लड़की एक जवान लड़के के साथ इस तरह की बात कर रही थी? अपने आप पर कैसे संयम रखा जा सकता था।
सच पूछ तो पहले तो मैं किसी भी तरह बस इसके खूबसूरत जिस्म को पा लेना चाहता था पर इन 10-15 दिनों में तो मुझे लगने लगा था कि मैं इसे प्रेम करने लगा हूँ। मैं अपनी प्रियतमा को भला इस तरह कैसे बर्बाद कर सकता था। सिमरन अभी बच्ची है, नादान है उसे जमाने के दस्तूर का नहीं पता। वो तो प्रेम और सेक्स को महज एक खेल समझती है। एक कुंवारी लड़की के साथ शादी से पहले यौन सम्बन्ध सरासर गलत हैं। मैं सिमरन से प्रेम करता हूँ भला मैं अपनी प्रियतमा के भविष्य से खिलवाड़ कैसे कर सकता था। हमने तो आपस में प्रेम की कसमें खाई हैं।
मैं अभी सोच ही रहा था कि सिमरन ने चुप्पी तोड़ी ‘प्रेम! शु तमने पण आ तीन रात थी ऊँघ नथी आवती?’ (प्रेम क्या तुम्हें भी इन तीन रातों में नींद नहीं आई?)
अजीब सवाल था? यह तो सौ फ़ीसदी सच था पर उसे कैसे पता? ‘तुम कैसे जानती हो?’ मैंने पूछा। ‘मारी बुध्धि घास खावा थोड़ी जाय छे?’ (मेरी अक्ल घास चरने थोड़े ही जाती है?) और वो हंसने लगी।
‘सिमरन एक बात सच बताऊँ?’ ‘हूँ…’ ‘मुझे भी इन तीन-चार रातों में नींद नहीं आई, बस तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा हूँ।’ ‘क्या सोचते रहे मैं भी तो सुनूँ?’ ‘ओहहो… सुम्मी मैं… मैं…?’
‘देखो तुम्हारी अक्ल फिर?’ वो कहते कहते रुक गई। उसकी तेज होती साँसें और आँखों में तैरते लाल डोरे मैं साफ़ देख रहा था।
‘वो… वो..?’ ‘ओहहो… क्या मिमिया रहो हो बोलो ना?’ उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया।
मेरी उत्तेजना के मारे जबान काँप रही थी। गला जैसे सूख रहा था। साँसें तेज होने लगी थी। मैंने आखिर कह ही दिया ‘सिमरन मैं तुम्हें प्रेम करने लगा हूँ!’
‘प्रेम, हूँ पण तमाने प्रेम करवा लागी छूं’ (प्रेम मैं भी तुमसे प्रेम करने लगी हूँ)
और वो फिर मेरे गले से लिपट गई। उसने मेरे होंठों और गालों को चूमते हुए कहना चालू रखा ‘हूँ इच्छूं छूं के तमारा खोलामां ज मारा प्राण निकले’ (मैं तो चाहती हूँ कि मेरी अंतिम साँसें भी तुम्हारी गोद में ही निकले)
मैंने उसे बाहों में भर लिया,उसके गुदाज बदन का वो पहला स्पर्श तो मुझे जैसे जन्नत में ही पहुंचा गया। उसने अपने जलते हुए होंठ मेरे होंठों पर रख दिए।
आह… उन प्रेम रस में डूबे कांपते होंठों की लज्जत तो किसी फरिस्ते का ईमान भी खराब कर दे।
मैंने भी कस कर उसका सिर अपने हाथों में पकड़ कर उन पंखुड़ियों को अपने जलते होंठों में भर लिया। वाह… क्या रसीले होंठ थे। उस लज्जत को तो मैं मरते दम तक नहीं भूल पाऊँगा।
मेरे लिए ही क्यों शायद सिमरन के लिए भी किसी जवान लड़के का यह पहला चुम्बन ही था। आह… प्रेम का वो पहला चुम्बन तो जैसे हमारे प्रगाढ़ प्रेम का एक प्रतीक ही था।
पता नहीं कितनी देर हम एक दूसरे को चूमते रहे। मैं कभी अपनी जीभ उसके मुँह में डाल देता और कभी वो अपनी नर्म रसीली जीभ मेरे मुँह में डाल देती। इस अनोखे स्वाद से हम दोनों पहली बार परिचित हुए थे वर्ना तो बस किताबों और कहानियों में ही पढ़ा था।
वो मुझ से इस कदर लिपटी थी जैसे कोई बेल किसी पेड़ से लिपटी हो या फिर कोई बल खाती नागिन किसी चन्दन के पेड़ से लिपटी हो। मेरे हाथ कभी उसकी पीठ सहलाते कभी उसके नितम्ब। ओह… उसके खरबूजे जैसे गोल गोल कसे हुए गुदाज नितम्ब तो जैसे कहर ही ढा रहे थे। उसके उरोज तो मेरे सीने से लगे जैसे पिस ही रहे थे। मेरा प्यारेलाल (लंड) तो किसी अड़ियल घोड़े की तरह हिनहिना रहा था।
मेरे हाथ अब उसकी पीठ सहला रहे थे। कोई दस मिनट तो हमने ये चूसा चुसाई जरूर की होगी। फिर हम अपने होंठों पर जबान फेरते हुए अलग हुए।
सिमरन मेरी ओर देखे जा रही थी। उसकी साँसें तेज होने लगी थी। शरीर काँप सा रहा था। वो बोली ‘ओह.. प्रेम परे क्यों हट गए…?’ ‘नहीं सिमरन हमें ऐसा नहीं करना चाहिए?’ ‘क्यों?’ ‘ओह… अब… मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ मेरी प्रियतमा?’
‘इस में समझाने वाली क्या बात है हम दोनों जवान हैं और… और… मेरे प्रेमदेव! मैं आज तुम्हें किसी बात के लिए मना नहीं करूँगी मेरे प्रियतम!’ ‘नहीं सिमरन मैं तुम से प्रेम करता हूँ और मैं तो मर कर भी भी तुम्हारे ख़्वाबों को हकीकत में बदलना चाहूँगा मेरी प्रियतमा!’
‘पर प्रेम तो तभी पूर्ण होता है जब दो शरीर आपस में मिल जाते हैं?’ ‘नहीं मेरी सिमरम! झूठ और फरेब की बुनियाद पर मुहब्बत की इमारत कभी बुलंद नहीं होती। मैं अपनी प्रियतमा को इस तरह से नहीं पाना चाहता!’
‘प्रेम हूँ साचु ज कहेती हटी ने? मने कोई प्रेम नथी करतु’ (प्रेम मैं सच कहती थी ना? मुझे कोई प्रेम नहीं करता?) और सिमरन फिर रोने लगी।
‘देखो सुम्मी मैं किसी भी तरह तुम्हारे अकेलेपन या नादानी का गलत फायदा नहीं उठाना चाहता। मैं तुम से प्रेम करता हूँ। प्रेम तो दो हृदयों का मिलन होता है जरुरी नहीं कि शरीर भी मिलें। प्रेम और वासना में बहुत झीना पर्दा होता है। हाँ यह बात मैं भी जानता हूँ कि हर प्रेम या प्यार का अंत तो बस शारीरिक मिलन ही होता है पर मैं अपने प्रेम को इस तरह नहीं पाना चाहता। तुम मेरी दुल्हन बनोगी और मैं सुहागरात में तुम्हें पूर्ण रूप से अपनी बनाऊँगा। उस समय हम दोनों एक दूसरे में समा कर अपना अलग अस्तित्व मिटा देंगे मेरी प्रियतमा!’
‘ओहहो… चलो मैं उन संबंधों की बात नहीं कर रही पर क्या हम आपस में प्रेम भी नहीं कर सकते? क्या एक दूसरे को चूम भी नहीं सकते केवल आज के लिए ही?’
मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा। आज इस लड़की को क्या हुआ जा रहा है?
‘प्रेम! हूँ जानू छुन के आ समय फरीथी पाछो आव्वानो नथी। हूँ मारा प्रेम ने फरी मेलवी शकीश नहीं। मेहरबानी करी मने ताम्र बाजुओ मां एकवार समावी लो ने…?’ (प्रेम मैं जानती हूँ ये पल दुबारा मुड़ कर नहीं आयेंगे। मैं अपने प्रेम को फिर नहीं पा सकूंगी। प्लीज मुझे अपनी बाहों में एक बार भर लो…?) उसकी आँखों से आंसू उमड़ रहे थे।
उस दिन उसने एक चुम्बन लेने से ही मुझे मना कर दिया था पर आज तो यह अपना सब कुछ लुटाने को तैयार है।
‘प्रेम कल किसने देखा है। मैं नहीं चाहती कि मेरे जाने के बाद तुम मेरी याद में रोते रहो!’ ‘क्या मतलब? तुम कहाँ जा रही हो?’ मैंने हैरानी से पूछा। ‘ओह… प्रेम मैं अभी कुछ नहीं बता सकती… प्लीज’
मैंने उसे अपनी बाहों में भर लिया। वो तो जैसे कब का इस बात का इंतज़ार ही कर रही थी, वो कभी मेरे होंठ चूमती कभी गालों को चूम लेती।
मैंने भी अब उसे अपनी बाहों में भर लिया और उसके रसीले होंठों को चूसने लगा।
धीरे धीरे मेरे होंठ अपने आप उसके गले से होते उरोजों की घाटियों तक पहुँच गए। सिमरन ने मेरा सिर अपनी छाती से लगा कर भींच लिया। आह… उस गुदाज रस भरे उरोजों का स्पर्श पा कर मैं तो अपने होश ही जैसे खो बैठा। उसने अपना टॉप उतार फेंका। उसने नीचे ब्रा तो पहनी ही नहीं थी।
आह… टॉप उतारते समय उसकी कांख के बालों को देख कर तो मैं मर ही मिटा। उसके बगल से आती मादक महक से तो जैसे पूरा कमरा ही भर गया था। दो परिंदे जैसे कैद से आज़ाद हुए हो और ऐसे खड़े थे जैसे अभी उड़ जायेंगे। उसने झट से अपने हाथ उन पर रख लिए।
‘ओह प्रेम ऐसे नहीं अन्दर चलो ना प्लीज?’
‘ओह हाँ…’ मुझे अपनी अक्ल पर तरस आने लगा। ये छोटी छोटी बातें मेरे जेहन में क्यों नहीं आती। हम अभी तक हाल में सोफे पर ही बैठे थे।
मैंने उसे बाहों में भर कर गोद में उठा लिया। उसने भी अपनी नर्म नाज़ुक बाहें मेरे गले में डाल दी। उसकी आँखें तो जैसे किसी अनोखे उन्माद में डूबी जा रही थी।
मैं उसे अपने कमरे में ले आया और उसे पलंग पर लेटा सा दिया पर उसकी और मेरी पूरी कोशिश थी कि एक दूसरे से लिपटे ही रहें। अब तो अमृत कलश मेरे आँखों के ठीक सामने थे। आह… गोल गोल संतरे हों जैसे। एरोला कैरम के गोटी जितना बड़ा लाल सुर्ख। इन घुंडियों को निप्पल्स तो नहीं कहा जा सकता बस चने के दाने के मानिंद एक दम गुलाबी रंगत लिए हुए।
मैंने जैसे ही उनको छुआ तो सिमरन की एक हलकी सी सीत्कार निकल गई। मैं अपने आप को भला कैसे रोक पता। मैंने अपने होंठ उन पर लगा दिए।
मेरा सिर सिमरन ने अपने हाथों में पकड़ कर अपनी छाती की ओर दबा दिया तो मैंने एक उरोज अपने मुँह में भर लिया… आह रसीले आम की तरह लगभग आधा उरोज मेरे मुँह में समा गया।
सिमरन की तो जैसे किलकारी ही निकल गई। मैंने एक उरोज को चूसना और दूसरे उरोज को हाथ से दबाना चालू कर दिया।
‘ओह…प्रेम चूसने हजी वधारे…जोर थी चूसने.. आःह मारा प्रेम…ओईईईईइ…मारी…मां… ओह… आईईईई.’ (ओह… प्रेम चूसो और ..और जोर से चूसो। आह… मारा..प्रेम… ओईई… मारी… माँ… ओह… आईईईई…)
मेरे लिए तो यह स्वर्ग के आनंद से कम नहीं था। अब मैंने दूसरे उरोज को अपने मुँह में भर लिया।
वो कभी मेरी पीठ सहलाती कभी मेरे सिर के बालों को कस कर पकड़ लेती। मैं उसकी बढ़ती उत्तेजना को अच्छी तरह महसूस कर रहा था।
थोड़ी देर उरोज चूसने के बाद मैंने फिर उसके होंठों को चूसना शुरू कर दिया। सिमरन ने भी मुझे कस कर अपनी बाहों में जकड़े रखा। वो तो मुझसे ज्यादा उतावली लग रही थी।
मैंने उसके होंठ, कपोल, गला, कान, नाक, उरोजों के बीच की घाटी कोई अंग नहीं छोड़ा जिसे ना चूमा हो। वो तो बस सीत्कार पर सीत्कार किये जा रही थी।
अब मैंने उसके पेट और नाभि को चूमना शुरू कर दिया। हम दोनों ने ही महसूस किया कि स्कर्ट कुछ अड़चन डाल रही है तो सिमरन ने एक झटके में अपनी स्कर्ट निकाल फेंकी।
आह… अब तो वो मात्र एक पतली और छोटी सी पैंटी में थी, मैंने उसकी पैंटी के सिरे तक अपनी जीभ से उसे चाटा। अह… उसकी नाभि के नीचे थोड़ा सा उभरा हुआ पेडू तो किसी पर जैसे बिजलियाँ ही गिरा दे।
और उसके नीचे पैंटी में फंसी उसकी बुर के दोनों पपोटे तो रक्त संचार बढ़ने से फूल से गए थे। उनके बीच की खाई तो दो इंच के व्यास में नीम गीली थी।
मैंने उसके पेडू को चूम लिया। एक अनोखे रोमांच से उसका सारा शरीर कांपने लगा था। मेरे दोनों हाथ उसके उरोजों को दबा और सहला रहे थे। उत्तेजना के कारण वो भी कड़क हो गए थे। उसकी घुन्डियाँ तो इतनी सख्त हो चली थी जैसे की कोई मूंगफली का दाना ही हो।
उसने मेरा सिर अपनी छाती से लगाकर कस लिया और अपने पैर जोर-जोर से पटकने लगी। कई बार अधिक उत्तेजना में ऐसा ही होता है।
और फिर वो हो गया जिसका मैं पिछले दो महीने से नहीं जैसे सदियों से इंतज़ार कर रहा था। सिमरन ने पहली बार मेरे प्यारेलाल को पैंट के ऊपर से पकड़ लिया और उसे सहलाने लगी।
वो तो ऐसे तना था जैसे कि अभी पैंट को ही फाड़ कर बाहर आ जाएगा। अचानक सिमरन बोली ‘अरे… तू पण तरी पैंट तो काढ’ (ओहहो… तुम भी तो अपनी पैंट उतारो ना?)
‘ओह… हाँ…’ और मैंने भी अपनी पैंट शर्ट और बनियान उतार फेंकी। काम का वेग मनुष्य का विवेक हर लेता है। हम दोनों ही अपनी सारी बातें उस उत्तेजना में भुला बैठे थे।
अब मेरे शरीर पर भी मात्र एक अंडरवीयर के कुछ नहीं बचा था। मैंने फिर एक बार उसे अपनी बाहों में भर कर चूम लिया।
सिमरन बस मेरा लंड छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही थी। अंडरवीयर के ऊपर से ही कभी उसे मसलती कभी उसे हिलाती। मैं तो मस्त हुआ उसे चूमता चाटता ही रहा।
मेरी प्यारी पाठिकाओं! अब उस पैंटी नाम की हलकी सी दीवार का क्या काम बचा था। आह… आगे से तो वो पूरी भीगी हुई थी। पैंटी उसकी फूली हुई फांकों के बीच में धंसी हुई सी थी। दोनों पपोटे तो जैसे फूल कर पकोड़े से हो गए थे।
मैंने धीरे से उसकी पैंटी के हुक खोल दिए और उसे नीचे खिसकाना शुरू किया। सिमरन की एक कामुक सीत्कार निकल गई।
अब तो बस दिल्ली ही लुट जाने को तैयार थी।
मैंने धीरे धीरे उसकी पैंटी को नीचे खिसकाना शुरू कर दिया। उसने अपनी जांघें कस कर भींच ली। पहले हलके हलके रोयें से नज़र आये। आह… रेशमी मखमली घुंघराले बालों का झुरमुट तो किसी के दिल की धड़कनें ही बंद कर दे।
मैं तो फटी आँखों से उस नज़ारे को देखता ही रह गया।
सच कहूँ तो मैंने जिन्दगी में आज पहली बार किसी कमसिन लड़की की बुर देखी थी। हाँ बचपन में जरूर अपने साथ खेलने वाले लड़कों और लड़कियों की नुन्नी और पिक्की देखी थी। पर वो बचपन की बातें थी उस समय इन सब चीज़ो का मतलब कौन जानता था। बस सू-सू करने वाला खेल ही समझते थे कि हम सभी में से किसके सू-सू की धार ज्यादा दूर तक जाती है।
ओह… मैं उसकी बुर की बात कर रहा था। हलके रोयों के एक इंच नीचे स्वर्ग का द्वार बना था जिसके लिए नारद और विश्वामित्र जैसे ऋषियों का ईमान डोल गया था वो मंजर मेरी आखों के सामने था।
तिकोने आकार की छोटी सी बुर जैसे कोई फूली हुई पाँव रोटी हो। दो गहरे लखारी (सुर्ख लाल) रंग की पतली सी लकीरें और चीरा केवल 3 इंच का। मोटे मोटे पपोटे और उनके दोनों तरफ हल्के-हल्के रोयें।
मेरे मुँह से बरबस निकल पड़ा ‘वाह… अद्भुत… अद्वितीय…’
मिर्ज़ा गालिब अगर इस कमसिन बुर को देख लेता तो अपनी शायरी भूल जाता और कहता कि अगर इस धरती पर कहीं जन्नत है तो बस यहीं है… यहीं है।
ऐसी स्थिति में तो किसी नामर्द का लौड़ा भी उठ खड़ा हो मेरा तो 120 डिग्री पर तना था। मैंने उसकी बुर की मोटी मोटी फांकों पर अपने जलते होंठ रख दिए।
एक मादक सी महक मेरे नथुनों में भर गई। खट्टी मीठी नमकीन सी सोंधी सोंधी खुशबू। मैंने अपने होंठों से उन गीली फांकों को चूम लिया। उसके साथ ही सिमरन की किलकारी पूरे कमरे में गूँज गई : ‘आईईईईई…’
उसका पूरा शरीर रोमांच और उत्तेजना से कांपने लगा था, उसने मेरा सिर पकड़ कर अपनी बुर की ओर दबा दिया।
जैसे ही मैंने उसकी बुर पर अपनी जीभ फिराई उसने तेजी के साथ अपना एक हाथ नीचे किया और अपनी नाम मात्र की जाँघों में अटकी पैंटी को निकाल फेंका। और अब अपने आप उसकी नर्म नाज़ुक जांघें चौड़ी होती चली गई जैसे अली बाबा के खुल जा सिमसिम कहने पर उस गुफा के कपाट खुल जाया करते थे।
आह… वो रक्तिम चीरा थोड़ा सा खुल गया और उसके अन्दर का गुलाबी रंग झलकने लगा।
मैंने अपना सिर थोड़ा सा ऊपर उठाया और दोनों हाथों से उसकी फांकें चौड़ी कर दी। आह… गुलाबी रंगत लिए उसकी पूरी बुर ही गीली हो रही थी उस में तो जैसे कामरस की बाढ़ ही आ गई थी।
एक छोटी सी एक छोटी सी चुकंदर जिसे किसी ने बीच से चीर दिया हो। पतली पतली बाल जितनी बारीक हलके नीले से रंग की रक्त शिराएँ। सबसे ऊपर एक चने के दाने जितनी मदन-मणि (भगनासा) और उसके कोई 1.5 इंच नीचे बुर का छोटा सा सिकुड़ा हुआ छेद। उसी छेद के अन्दर सू-सू वाला छेद। आह सू-सू वाला छेद तो बस इतना छोटा था कि जैसे टुथपिक भी बड़ी बड़ी मुश्किल से अन्दर जा पाए। शायद इसी लिए कुंवारी लड़कियों की बुर से मूत की इतनी पतली धार निकलती है और उसका संगीत इतना मधुर और कर्णप्रिय होता है।
मैंने अपनी जीभ जैसे ही उस पर लगाई सिमरन तो उछल ही पड़ी जैसे। उसने मेरे सिर के बाल इस कदर नोचे कि मुझे लगा बालों का गुच्छा तो जरूर उसके हाथों में ही आ गया होगा।
वह क्या मीठा खट्टा नारियल पानी जैसा स्वाद और महक थी उस कामरस में। मैं तो चटखारे ही लगने लगा था।
मैंने उसकी बुर को पहले चाटा फिर चूसना चालू कर दिया। जैसे ही मैं अपनी जीभ ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर करता वो तो सीत्कार पर सीत्कार करने लगी।
अब मैंने उसके दाने को अपनी जीभ से टटोला। वो तो अब फूल कर मटर के दाने जितना बड़ा हो गया था।
मैंने अपने दांतों के बीच उसे हल्का सा दबा दिया। उसके साथ ही सिमरन की एक किलकारी फिर निकल गई। उसकी बुर ने तो कामरस की जैसे बौछारें ही चालू कर दी।
इतनी छोटी उम्र में बुर से इतना कामरस नहीं निकलता पर अधिक उत्तेजना में कई बार ऐसा हो जाता है। यही हाल सिमरन का था।
उसने अपने पैर मेरी गरदन के दोनों ओर लपेट लिए और मेरा सिर कस कर पकड़ लिया। अब मैंने उसके नितम्ब भी सहलाने शुरू कर दिए। वाह क्या गोल गोल कसे हुए नितम्ब थे। चूतड़ों की गहराई महसूस करके तो मेरा रोम रोम पुलकित हो गया था। मैंने सुना था कि गांड मरवाने वाली लड़कियों और औरतों के नितम्ब बहुत खूबसूरत हो जाते हैं पर सिमरन के तो शायद टेनिस खेलने की वजह से ही हुए होंगे।
जिस लड़की ने कभी ठीक से अपनी अंगुली भी अपनी बुर में नहीं डाली, गांड मरवाने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
मेरी चुस्की चालू थी। मैं तो उस रस का एक एक कतरा पी जाना चाहता था।
उसका शरीर थोड़ा सा अकड़ा और उसके मुँह से गुर्र… रररर… गुं… नन्न… उईईइ… की आवाजें निकलने लगी। ‘ओह…प्रेम…मने कई…थई छे…कई कर ने..?’ (प्रेम मुझे कुछ हो रहा है… कुछ करो ना) ऊईईईइ… आऐईईईईइ… मम्म्मीईइ… आह…’ और उसके साथ ही उसकी जकड़न कुछ बढ़ने लगी और साँसें तेज होती गई। उसने दो तीन झटके से खाए और फिर मेरा मुँह किसी रसीले खट्टे मीठे रस से भर गया। शायद उसकी बुर ने पानी छोड़ दिया था।
आप सोच रहे होंगे यार इस कमसिन बुर को देख और चूस कर अपने आप पर संयम कैसे रख पाए? ओह… मैंने बताया था ना कि मैंने आज सुबह सुबह दो बार मुट्ठ मारी थी नहीं तो मैं अब तक तो अंडरवीयर में ही घीया हो जाता।
अब पलंग के ऊपर बेजोड़ हुस्न की मल्लिका का अछूता और कमसिन बदन मेरे सामने बिखरा था। वो अपनी आँखें बंद किये चित्त लेटी थी। उसका कुंवारा बदन दिन की हलकी रोशनी में चमक रहा था।
मैं तो बस मुँह बाए उसे देखता ही रह गया। उसके गुलाबी होंठ, तनी हुई गोल गोल चुंचियाँ, सपाट चिकना पेट, पेट के बीच गहरी नाभि, पतली कमर, उभरा हुआ सा पेडू और उसके नीचे दो पुष्ट जंघाओं के बीच फसी पाँव रोटी की तरह फूली छोटी सी बुर जिसके ऊपर छोटे छोटे घुंघराले काले रेशमी रोयें।
मैं तो टकटकी लगाये देखता ही रह गया। मैंने उसकी बुर को चाटने के चक्कर में पहले इस हुस्न की मल्लिका के नंगे बदन को ध्यान से देखना ही भूल गया था। अचानक उसने आँखें खोली तो उसे अपने और मेरे नंगे जिस्म को देखा तो मारे शर्म के उसने अपनी आँखों पर अपने हाथ रख लिए।
माफ़ कीजिये, मैं एक शेर सुनाने से अपने आप को नहीं रोक पा रहा हूँ…
क्या यही है शर्म तेरे भोलेपन के मैं निसार मुँह पे हाथ दोनों हाथ रख लेने से पर्दा हो गया?
इस्स्सस्स स्स्स… मैं तो उसकी इस अदा पर मर ही मिटा। मैंने भी अपना अंडरवीयर निकाल फेंका और मेरा प्यारेलाल तो किसी बन्दूक की नली की तरह निशाना लगाने को बस घोड़ा दबाने का इंतज़ार ही कर रहा था।
‘ओह मेरी सिमसिम तुम बहुत खूबसूरत हो’
‘मारा कपडा आपी देव ने…मने शर्म आवे छे।’ (मेरे कपड़े दो ओह… मुझे शर्म आ रही है) और वह अपनी बुर को एक हाथ से ढकने की नाकाम कोशिश करने लगी और एक ओर करवट लेते हुए पेट के बल ओंधी सी हो गई। उसके गोल गोल खरबूजे जैसे नितम्बों के बीच की खाई तो ऐसी थी जैसे किसी सूखी नदी की तलहटी हो। आह… समंदर की लहरों जैसे बल खाता उसका शफ्फाक बदन किसी जाहिद को भी अपनी तौबा तुड़ाने को मजबूर कर दे। कोई शायर अपनी शायरी भूल कर ग़ज़ल लिखना शुरू कर दे। परिंदे अपनी परवाज़ ही भूल जाएँ मेरी क्या बिसात थी भला।
अब देर करना ठीक नहीं था। मैंने उसे सीधा करके बाहों में भर लिया। और उसने भी शर्म छुपाने के लिए मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया और मेरे होंठ चूमने लगी।
वो चित्त लेटी थी और मैं उसके ऊपर लगभग आधा लेटा था। मेरा एक हाथ उसकी गर्दन के नीचे था और दूसरे हाथ से मैं उसके नितम्ब और कमर सहला रहा था। मेरा एक पैर उसकी दोनों जाँघों के बीच में था। इस कारण वो चाह कर भी अपनी जांघें नहीं भींच सकती थी।
अब तो खुल जा सिमसिम की तरह उसका सारा खजाना ही मेरे सामने खुला पड़ा था। मैंने उसके वक्ष, पेट, कमर, नितम्बों और जाँघों पर हाथ फिराना चालू कर दिया। उसकी मीठी सीत्कार फिर चालू हो गई, उसकी कामुक सीत्कारें निकलने लगी थी।
मैंने धीरे से अपने दाहिने हाथ की अँगुलियों से उसकी बुर को टटोला और धीरे से उसके चीरे में ऊपर से नीचे तक अंगुली फिराई। उसकी बुर तो बेतहाशा पानी छोड़ छोड़ कर शहद की कुप्पी ही बनी थी। मैंने उसकी फांकें मसलनी चालू कर दी और फिर अपनी चिमटी में उसकी मदनमणि को पकड़ कर दबा दिया। मेरे ऐसा करने से उसकी किलकारी निकल गई।
अब मैंने उसकी बुर के गीले छेद को अपनी अंगुली से टटोला और धीरे से अंगुली को थोड़ा सा अन्दर डाल दिया। मेरी अंगुली ने उसकी बुर के कुंवारेपन को महसूस कर लिया था।
उसकी बुर का कसाव इतना था कि मुझे तो ऐसा लगा जैसे किसी बच्चे ने अपने मुँह में मेरी अंगुली ले ली हो और उसे जोर से चूस लिया हो। मैंने 2-3 बार अपनी अंगुली उसकी बुर के छेद में अन्दर बाहर की। मेरी पूरी अंगुली उसके कामरस से भीग गई।
मैं उस रस को एक बार फिर चाट लेना चाहता था।
जैसे ही मैंने अंगुली बाहर निकाली सिमरन ने एक हाथ से मेरा लंड पकड़ लिया और उसे मसलने लगी। कभी वो उसे दबाती कभी हिलाती और कभी उसे कस कर अपनी बुर की ओर खींचती। मेरा लंड तो ठुमके लगा लगा कर ऐसे बावला हुआ जा रहा था कि अगर अभी अन्दर नहीं किया तो उसकी नसें ही फट जायेगी।
मेरा लंड उसकी बुर को स्पर्श कर रहा था, उसने उसे पकड़ कर अपनी बुर से रगड़ना चालू कर दिया। बुर से बहते कामरस से मेरे लंड का सुपाड़ा गीला हो गया।
एक हाथ कभी उसके नितम्बों पर और कभी उसकी जाँघों पर फिर रहा था। वो सीत्कार पर सीत्कार किये जा रही थी।
लोहा पूरी तरह गर्म हो चुका था अब हथोड़ा मारने का काम बाकी बचा था। मैं थोड़ा डर भी रहा था पर अब मैंने अपना लंड उसकी बुर में डालने का फैसला कर लिया।
उसका शरीर उत्तेजना के मारे अकड़ने लगा था और साँसें तेज होने लगी थी। मेरा दिल भी बुरी तरह धड़क रहा था। उसने अस्फुट शब्दों में कहा ‘ओह…प्रेम…मने कई…थई छे…कई कर ने..?’ (ओह… प्रेम… मुझे कुछ… हो रहा है… कुछ करो ना?)
‘देखो मेरी सिमरन… मेरी सिमसिम अब हम उस मुकाम पर पहुँच गये हैं जिसे यौन संगम कहते हैं और… और…’
‘ओह…हवे शायरों वाली वातो छोडो आने ए…आह..ओईईइ…आआईई…’ (ओह… अब शायरों वाली बातें छोड़ो और अ… आह… उईई… आईई…) उसने मेरे होंठों को जोर से काट लिया।
मैंने अपने हाथों से उसकी बुर की फांकों को खोला और अपने लंड को उसके गुलाबी और रस भरे छेद पर लगा दिया। अब मैंने उसे अपनी बाहों में भर लिया और हल्का सा एक धक्का लगाया। मेरा सुपाड़ा उसके छेद को चौड़ा करता हुआ अन्दर सरकने लगा उसकी बुर की फांकें ऐसे चौड़ी होती गई जैसे अलीबाबा के खुल जा सिमसिम कहते ही उस बंद गुफा का दरवाजा खुल जाया करता था।
वह थोड़ी सी कुनमुनाई, उसे जरूर दर्द अनुभव हो रहा होगा।
अब देर करना ठीक नहीं था मैं एक जोर का धक्का लगा दिया और उसके साथ ही मेरा लंड पांच इंच तक उसकी बुर में एक गच्च की आवाज के साथ समा गया।
इसके साथ ही उसके मुँह से एक दर्द भरी चीख सी निकल गई। मुझे लगा कुछ गर्म सा द्रव्य मेरे लंड के चारों ओर लग गया है और कुछ बाहर भी आ रहा है। शायद उसकी कौमार्य झिल्ली फट गई थी और उसके फटने से निकला खून था यह तो।
वो दर्द के मारे छटपटाने लगी थी पर मेरी बाहों में इस कदर फँसी थी जैसे कोई चिड़िया किसी बाज़ के पंजों में फसी फड़फड़ा रही हो। उसकी आँखों में आंसू निकल कर बहने लगे।
‘आ ईईईइईई मम्मी… आईईईइ… मरी गई…ओह…बहार काढने…’ (आ ईईईइईई मम्मी… आईईईइ… मर गई… ओह… बाहर निकालो ओ…) उसने बेतहा सा मेरी पीठ पर मुक्के लगाने चालू कर दिए और मुझे परे धकेलने की नाकाम कोशिश करने लगी।
‘ओह सॉरी मेरी रानी मेरी सुम्मी बस बस… जो होना था हो गया। प्लीज चुप करो प्लीज’
‘तू तो एकदम कसाई जेवो छे, आवी रीते तो कोई धक्को लगावतु हसे कई?’ (तुम पूरे कसाई हो भला ऐसा भी कोई धक्का लगाता है?)
‘ब… ब… सॉरी… मेरी सिमसिम प्लीज मुझे माफ़ कर दो प्लीज?’ मैंने उसके होंठों को चूमते हुए कहा और फिर उसके गालों पर बहते आंसूओं को अपनी जीभ से चाट लिया। उन आंसुओं और उसकी बुर से निकले काम रस का स्वाद एक जैसा ही तो था बस खुशबू का फर्क था।
सिमरन अब भी सुबक रही थी। पर ना तो वो हिली और ना ही मैंने अपनी बाहों की जकड़न को ढीला किया। लंड उसकी कसी बुर में समाया रहा। वाह… क्या कसाव था। ओह जैसे किसी पतली सी नाली में कोई मोटा सा बांस ठोक दिया हो।
कुछ देर मैं ऐसे ही उसके ऊपर पड़ा उसे चूमता रहा। इससे उसे थोड़ी राहत मिली, उसके आंसू अब थम गए थे वह अब सामान्य होने लगी थी।
‘प्रेम हवे बाजु पर हटी जा, मने दुखे छे अने बले पण छे… ओह…? ओईईईईईइ…?’ (प्रेम अब परे हट जाओ मुझे दर्द हो रहा है और जलन भी हो रही है… ओह…? ओईईई…)
‘देखो सिमरन जो होना था हो गया अब तो बस मज़ा ही बाकी है प्लीज बस दो मिनट रुक जाओ ना आह…’
मैंने अपने लंड को जरा सा बाहर निकला तो मेरे लंड ने ठुमका लगा दिया। इसके साथ ही सिमरन की बुर ने भी संकोचन किया। बुर और लंड के संगम में हमारी किसी स्वीकृति की कहाँ आवश्यकता रह गई थी।
और फिर उसने मुझे इस कदर अपनी बाहों में जकड़ा कि मैं तो निहाल ही हो गया। अब मैंने हौले-हौले धक्के लगाने शुरू कर दिए थे। सिमरन भी कभी कभी नीचे से अपने चूतड़ उछालती तो एक फच की आवाज़ निकलती और हम दोनों ही उस मधुर संगीत में अपनी ताल मिलाने लगते।
अब उसकी बुर रंवा हो चुकी थी इसलिए लंड महाराज बिना किसी रुकावट के अन्दर बाहर होने लगे। सिमरन की मीठी सीत्कार फिर निकलने लगी थी। उसने मेरे होंठ इस कदर अपने दांतों में भर कर काट लिए थे कि मेरे होंठों से खून सा झलकने लगा था।
मुझे अपने लंड में भी कुछ जलन सी महसूस हो रही थी। शायद उसकी कुंवारी बुर की रगड़ से थोड़ा सा छिल गया होगा। पर यह छोटा मोटा दर्द इस परम सुख के आगे क्या मायने रखता था।
सिमरन की सिसकारियाँ अब भी चालू थी लकिन अब दर्द भरी नहीं मिठास और रोमांच भरी थी। मैंने उसके उरोज फिर से चूसने चालू कर दिए।
‘ओह… आह… य़ाआआ… इस्स्स्स…’
मैंने उसके उरोज की घुंडी को दांतों के बीच दबा कर थोड़ा सा काट लिया तो उसके मुँह से किलकारी ही निकलने लगी ‘ओह…जरा धिरेथी चूसने…चूस ने?’ (ओह… जरा धीरे आह… चूसो ना?)
सिमरन का कमसिन और गुदाज बदन मेरे नीचे बिछा पड़ा था। उसकी टाँगे कभी ऊपर उठती कभी नीचे हो जाती। कभी वो कैंची की तरह मेरी कमर से अपनी टांगें जकड़ लेती। अब उसे भी मज़ा आने लगा था। मेरा लंड पूरा उसकी बुर में समाया था।
मैं होले होले धक्के लगा रहा था और वो भी मेरे लयबद्ध धक्कों के साथ अपने चूतड़ उछाल उछाल कर मेरे साथ अपनी ताल मिलाने की कोशिश करने लगी थी।
हम दोनों के जिस्म इस कदर आपस में गुंथे थे कि हवा भी नहीं गुज़र सकती। ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ धक्के ही लगा रहा था मैं साथ उसके सारे शरीर को भी सहला रहा था और उसके माथे, कपोल, पलकें, होंठ, चुंचियाँ और उरोजों की घाटियाँ भी चूम रहा था।
हमें कोई 15 मिनट तो हो ही गए होंगे। पता नहीं सिमरन को क्या सूझा उसने मुझे इशारा किया कि एक बार वो ऊपर आना चाहती है। मुझे क्या ऐतराज़ हो सकता था और भला यह कौन सा मुश्किल काम था। हमने एक गुलाटी खाई और आपस में गुंथे हुए हम दोनों की पोजीशन बदल गई।
अब सिमरन ठीक मेरे ऊपर थी। उसने अपने सिर के छोटे छोटे बालों को एक झटका सा दिया और फिर दोनों हाथ मेरी छाती पर रख कर अपनी कमर को थोड़ा सा ऊपर किया और अपने घुटने थोड़े से मोड़े। और फिर जोर का एक झटका लगाते हुए गच्च से मेरे लंड के ऊपर बैठ गई।
एक फच की आवाज के साथ लंड महाराज जड़ तक अन्दर समा गए। मेरे लंड ने एक जोर का ठुमका लगाया और सिमरन फिर सीधेहोते थोड़ा सा ऊपर उठते हुए एक बार फिर गच्च से अपनी बुर को नीचे कर दिया।
आह… क्या मस्त झटके लगाती है ये सोनचिड़ी भी। जरूर इसने कहीं किसी की चुदाई देखी होगी। नहीं तो भला पहली चुदाई में इतनी बातें कुंवारी लड़कियों को कहाँ पता होती हैं।
आठ-दस धक्कों के बाद वो जैसे थक गई और हम फिर अपनी पुरानी मुद्रा में आ गए।
सिमरन सुस्त पड़ने लगी थी, उसने अपनी टांगें फैला दी थी।
मैंने अपने घुटने थोड़े से मोड़े और अपनी कोहनियों के बल हो गया ताकि मेरे शरीर का भार उसके ऊपर कम से कम पड़े।
मैंने चार-पाँच धक्के एक ही सांस में लगा दिया। सिमरन तो बस आन… आह… उन्ह… आऐईई… ही करती रह गई। उसकी आँखें एक अनोखे आनंद से सराबोर होकर बंद हो रही थी।
एकाएक उसने मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया और नीचे से धक्के लगाने लगी। मुझे लगा कि उसकी बुर का कसाव बढ़ रहा है। मुझे उसका जिस्म कुछ अकड़ता सा महसूस हुआ। शायद वो झड़ रही थी। उसके मुँह से कामुक सीत्कार निकलने लगी।
तभी मुझे लगा कि उसकी बुर का कसाव कुछ ढीला सा हो गया है और उसमें से चिकनाई सी निकल कर मेरे लंड के चारों और लिपट गई है। फच फच की आवाज भी तेज होने लगी थी। शायद वो एक बार फिर झड़ गई थी।
अब मुझे भी लगने लगा था कि मेरा निकलने के कगार पर है। मैंने अपने धक्कों की गति बढ़ानी शुरू कर दी। मेरा लंड तेजी से अन्दर बाहर होने लगा था। सिमरन की बुर से निकली चिकनाई ने तो उसे रंवा ही कर दिया था।
मुझे तो लग रहा था कि मैं स्वर्ग में ही पहुँच गया हूँ। मैं भी चुदाई के नशे में मस्त होकर आह… या… इस्स्स्सस्स… गुर्र्र्रर… की आवाजें निकालने लगा था।
‘सिमरन! मेरी मेरी जान तुमने तो मुझे आज स्वर्ग में ही पहुंचा दिया है मेरी सोनचिड़ी… मेरी सिमसिम’ मैंने उसे चूमते हुए कहा।
‘ओह मारा प्रेम खबर नथी पण हूँ क्यारनी आ अभूतपूर्व आनंद माटे तरसी रही हटी?’ (ओह मेरे प्रेम पता नहीं मैं कब से इस अनोखे आनंद के लिए तरस रही थी)
‘ओहह… मेरी सुम्मी… मेरी सिमसिम… मेरी निक्कुड़ी… आह…?’ मैंने कस कर एक जोर का धक्का उसकी बुर में लगा दिया।
वो चिहुंक उठी ‘अह्ह्ह…जरा धीरे करोने?’ (आह… जरा धीरे करो ना?)
‘सुम्मी सच बताना तुम्हें भी मज़ा आ रहा है ना?’
‘ओह…मारा प्रेम हवे कई पण नहीं पूछ बस आम ज करतो रहे। हूँ तो चाहू छुन के बस आ पल कयारे पण समाप्त नहीं थाय। हूँ तो बस तारा मां समय्ने मारू अस्तित्व, मारू वजूद बधू ज भूली जावा मंगू छु।’ (ओह… मेरे प्रेम अब कुछ मत पूछो बस इसी तरह करते रहो। मैं तो चाहती हूँ कि बस ये पल कभी ख़त्म ही ना हों। मैं तो बस तुममें समा कर अपना अस्तित्व अपना वजूद सब कुछ भूल जाना चाहती हूँ)
‘सुम्मी मैं भी पता नहीं कितना तड़फा हूँ तुम्हारे लिए। आज मेरी भी बरसों की प्यास बुझी है।’
मुझे लगने लगा कि अब मैं अपना संयम खोने वाला हूँ। किसी भी समय मेरा मोम पिंघल सकता है। मैंने सिमरन से कहा ‘सिमरन अब मैं भी झड़ने वाला हूँ!’
‘प्रेम, मारा चित्तचोर, मारा हैया ना हार, मारा वहाला… हूँ तमारा प्रेम नी प्यासी छूं। आ मीठी आग अने मीठी चुभन मां मने खूब मजा आवे छे।’ (ओह प्रेम मेरे मनमीत मेरे महबूब अब कुछ मत बोलो बस मुझे प्रेम करते जाओ…आह… मैं तुम्हारे प्रेम की प्यासी हूँ। मुझे इस मीठी जलन और चुभन में मीठा मज़ा आ रहा है)
मैंने एक बार उसे अपनी बाहों में फिर से जकड़ कर चूम लिया लिया। अभी मैंने दो-तीन धक्के ही लगाये थे कि सिमरन एक बार फिर झड़ गई। मेरी तो साँसें ही अटक गई थी।
मेरे धक्के बढ़ते जा रहे थे और मैं भी चरम सीमा तक पहुँच चुका था। मेरा मन अभी नहीं भरा था मैं कुछ देर इसी तरह इस कार्यक्रम को चालू रखना चाहता था पर सिमसिम की बुर की अदाएं उसकी बुर का अन्दर से मरोड़ना और दीवारों का संकोचन करना मुझे भी अपने शिखर पर पहुंचा ही गया।
सिमरन की एक किलकारी गूँज उठी और उसके साथ ही मेरा भी पिछले आधे घंटे से कुलबुलाता लावा फूट पड़ा। पता नहीं कितनी पिचकारियाँ निकली होंगी। उसकी बुर मेरे गर्म गाढ़े वीर्य से लबालब भर गई।
और फिर हम दोनों ही शांत पड़ गये। पता नहीं कितनी देर हम दोनों इसी अवस्था में लेटे रहे आँखें बंद किये उस अनंत असीम आनंद में डूबे जिसे ब्रह्मानंद कहा जाता है।
दो जवान जिस्म मिल कर जब एकाकार होते हैं तो प्रेम रस की गंगा बह उठती है।
मेरा लंड फिसल कर उसकी बुर से बाहर आ गया था। उसकी बुर से मेरा वीर्य उसका कामरज और खून का मिलाजुला मिश्रण बाहर निकलने लगा था जो उसकी जाँघों और नीचे वाले छेद तक फैलने लगा। उसे गुदगुदी सी होने लगी थी ‘ऊईईईई… माँ आ…’ वह कुनमुनाई।
‘क्या हुआ?’ ‘मने गलिपाची अने बलतारा जेवु थाय छे’ (मुझे गुदगुदी और जलन सी हो रही है) ‘ओह… लाओ मैं पोंछ देता हूँ!’
पास में पड़ा वही लाल रंग का रुमाल जिस पर S+P लिखा था। मैंने तकिये के नीचे से निकाला और उसकी बुर से झरते रस को पोंछ दिया। पूरा रुमाल उस प्रेम रस से भीग गया था।
मैंने देखा था कि अब भी कुछ खून उसकी बुर से रिस रहा था। उसकी बुर तो आगे से थोड़ी सी खुल सी गई थी जैसे किसी सोनचिड़ी ने अपनी चोंच खोल रखी हो। कितनी प्यारी लग रही थी उस हालत में भी। मैं एक चुम्मा उस पर ले लेना चाहता था।
जैसे ही मैं आगे बढ़ा सिमरन ने मुझे परे धकेलते हुए कहा ‘बाजु पर खासी जा, ऊँट जेवो? जो ते मारी निक्कुड़ी नी शुं दुर्गति करी दिधी छे?’ (हटो परे ऊँट कहीं के? देखो तुमने मेरी निक्कुड़ी की क्या दुर्गत कर दी है?)
मैंने मुस्कुराते हुए कहा ‘अच्छा लाओ देखता हूँ?’
‘छट गधेड़ा!’ (ओह… हटो परे बुद्धू) उसने मुझे परे धकेल दिया।
अब इस निक्कुड़ी का दूसरा मतलब मेरी समझ में आया था। जल्दी से मैंने कपड़े पहन लिए। पलंग पर जो चद्दर बिछी थी वो भी 4-5 इंच के घेरे में गीली हो गई थी और उस पर भी हमारे प्रेम का रस फ़ैल गया था।
मैंने जल्दी से उस पर तकिया रख दिया त़ाकि सिमरन की निगाह उस पर ना पड़े। सिमरन ने भी जल्दी से कपड़े पहन लिए।
मैं अब भी उसकी पैंटी की ओर ही देख रहा था। मुझे ऐसा करते हुए देख कर उसने भी अपनी पैंटी की ओर देखा। उसकी पैंटी के आगे वाले हिस्सा गीला सा हो रहा था और उस पर भी खून के कुछ दाग से लगे थे। सिमरन यह देख कर कहने लगी :
‘हे भगवान् इस में से तो अभी भी खून आ रहा है? ओह… गोड! घर पर मम्मी ने अगर देख लिया तो मैं क्या जवाब दूँगी?’ सिमरन की शक्ल रोने जैसी हो गई थी। यह अजीब समस्या थी।
मैंने सिमरन से पूछा ‘सिमरन तुम्हारे पिरियड्स कब आये थे?’ ‘श…श… शुं मतलब?’ (क… क… क्या मतलब?) ‘प्लीज बताओ ना?’
‘ओह! मैंने बताया तो था कि कल रात ही ख़त्म हुए हैं? इसी लिए तो मैं 3 दिन ट्यूशन पर नहीं आई थी? पर तुम क्यों पूछ रहे हो?’ ‘अरे मेरी सिमसिम आज तुम्हारी भी अक्ल घास चरने चली गई है?’ ‘क… क…केवी रीते?’ (क… क… कैसे) ‘फिर क्या समस्या है बोल देना पीरियड्स अभी ख़त्म नहीं हुए हैं!’ ‘अरे वाह… तमे तो… पण आ वात मारा दिमाग मां पहेलां केम ना आवी?’ (ओह… अरे वाह…? तुम तो बड़े… ओह… पर यह बात पहले मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई?)
‘दरअसल तुम्हारी अक्ल भी मेरे साथ कभी कभी घास जो चरने चली जाती है ना?’ मैंने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली अपनी कनपटी पर लगाईं और उसे घुमाते हुए ठीक उसी अंदाज़ में इशारा किया जैसा मुझे चिढ़ाने के लिए वो किया करती थी।
हम दोनों की हंसी एक साथ निकल गई।
सिमरन ने एक बार फिर मुझ से लिपट गई और उसने मेरे होंठों को चूमते हुए मेरी पीठ पर एक जोर का मुक्का लगा दिया।
‘घेलो… दीकरो… ऊँट जेवो…’ उसने अपनी जीभ निकाल कर मुझे चिढ़ा दिया।
फिर मैं सिमरन को उसके घर छोड़ आया। आप सोच रहे होंगे यार प्रेम तेरी तो बन पड़ी।
दोस्तो! नीयति के खेल बड़े निराले और बेरहम होते हैं उन्हें कौन जान पाया है?
दूसरे दिन सुबह स्कूल में पता लगा कि सिमरन कल रात नींद में चलते छत से गिर पड़ी थी और हॉस्पिटल में आज सुबह उसकी मौत हो गई है। मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में पिंघलता हुआ शीशा ही डाल दिया है मेरा दिल किसी आरी से चीर दिया है और मेरे सारे सपने एक ही झटके में टूट गए हैं।
स्कूल में आज छुट्टी कर दी गई थी। मैं सीधे अस्पताल पहुंचा। मेरे पास से एक एम्बुलेंस निकली। मेरी सिमरन सफ़ेद चादर में लिपटी कभी ना खुलने वाली नींद में सोई थी। उसके बेरहम माँ-बाप अपना सिर झुकाए उसके पास ही बैठे थे। मैं जानता हूँ मेरी सिमरन ने अपनी जान इन्हीं के कारण दी है। एम्बुलेंस मेरी आँखों से दूर होती चली गई मैं तो बुत बना उसे देखता ही रह गया।
अचानक मुझे पहले तो पीछे से किसी कर्कश होर्न की आवाज पड़ी और उसके साथ ही ट्रक ड्राईवर की एक भद्दी सी गाली सुनाई दी। मैं सड़क के बीच जो खड़ा था। मैं एक ओर हट गया। ट्रक धूल उड़ाता चला गया। मैंने देखा था ट्रक के पीछे एक शेर लिखा था :
ये दिल की बस्ती भी शहर दिल्ली है ना जाने कितनी बार उजड़ी है
मैंने अपनी जेब से उसी ‘लाल रुमाल’ को निकला जो सिमरन ने मुझे भेंट किया था और हमारे प्रेम की अंतिम निशानी था और अपनी छलकती आँखें ढक ली ताकि कोई दूसरा इन अनमोल कतरों (आंसुओं) को ना देख पाए। मैं भला अपनी सिमरन (निक्कुड़ी) की यादों को किसी दूसरे को कैसे देखने दे सकता था।
एक नटखट, नाज़ुक, चुलबुली और नादान कलि मेरे हाथों के खुरदरे स्पर्श और तपिश में डूब कर फूल बन गई और और अपनी खुशबुओं को फिजा में बिखेर कर किसी हसीन फरेब (छलावे) की मानिंद सदा सदा के लिए मेरी आँखों से ओझल हो गई। मेरे दिल का हरेक कतरा तो आज भी फिजा में बिखरी उन खुशबुओं को तलाश रहा है…
मेरे प्यारे पाठको और पाठिकाओ! अपनी सिमरन, सिमसिम और सोनचिड़ी (निक्कुड़ी) की याद में रोते इस प्रेम गुरु को एक मेल तो करेंगे ना?
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