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कामिनी सक्सेना
जमशेदपुर की स्वर्णलता लिखती है कि अन्तर्वासना की कहानियाँ बहुत रोचक होती हैं। पढ़ने के बाद दिल में कुछ कुछ होने लगता है। आज वो 40 वर्ष की अधेड़ महिला है और अपने पति की मृत्यु के उपरान्त उसी कार्यालय में कार्य करती है।
उसकी यह कहानी उस समय की है जब वह 26 वर्ष की थी। उनके पास उस समय एक 9 माह की लड़की भी थी। उसके पति सरकारी दफ़्तर में ड्राईवर थे, जो अक्सर अपने बड़े साहब के साथ अधिकतर यात्रा पर ही रहते थे।
स्वर्णलता के शब्दों में :
हम पति पत्नी एक कस्बे में बड़े से मकान में किराये पर रहते थे। हम उस बड़े मकान की रखवाली भी करते थे। हमारी माली हालत भी अच्छी नहीं थी। किसी तरह से दिन गुजर रहे थे। मेरे पति राधेश्याम बहुत कम बोलने वाले व्यक्ति थे। सेक्स में उनकी अधिक रुचि नहीं थी।
उन्हीं दिनों ऑफ़िस में एक नये अधिकारी का पदस्थापन हुआ था। वे बड़े साहब के सहायक थे। उनका नाम अनिल था।
नई भर्ती से आये थे, बहुत चुस्त, फ़ुर्तीले, मधुर स्वभाव के थे वो। उस समय लम्बे बालो का फ़ेशन था, उनके हल्के उड़ते हुये रेशमी बाल मुझे बहुत अच्छे लगते थे। अनिल को मेरे पति ने अपने बड़े मकान में एक हिस्सा दे दिया था।
अनिल बहुत हंसमुख स्वभाव के थे। मुझसे वो बहुत इज्जत से पेश आते थे। एक मन की बात कहूँ ! आप पाठकगण शायद हंसेंगे?
हम जैसी महिलाओं में अधिकतर यह दिली चाह होती है कि हमारा पति भी एक ऑफ़ीसर जैसा हो, उसका रुतबा हो ! और उसी स्वप्न में हम उसी स्टेण्डर्ड से रहने भी लग जाती हैं, अच्छे कपड़े पहनना, मंहगी वस्तुएँ खरीदना, और हां फिर उसे सभी को बताना। ये सभी कमियां मुझ में भी थी।
अनिल को हमारे साथ रहते हुये तीन चार माह बीत चुके थे। मैं उन्हें कोई तकलीफ़ नहीं होने देती थी, उन्हें खाना, चाय नाश्ता वगैरह उनकी पसन्द का ही देती थी, बदले में वो हमें जरूरत से अधिक पैसा देते थे। मैं अनिल के साथ बहुत घुलमिल गई थी। वो मेरे पति से अधिक बात नहीं करते थे, क्योकि शायद वो उनके भी ड्राईवर थे। घटना की यूँ शुरूआत हुई …
एक शाम को हमारा एक पुरानी फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बना। मुझे याद है वो दिलीप कुमार की पुरानी फिल्म देवदास थी।
किसी कारणवश मेरे पति को बड़े साहब के साथ यात्रा पर जाना पड़ा। मैं मन मसोस कर रह गई।
ऐसे में अनिल ने कहा कि वो मुझे फ़िल्म दिखा लायेगा। शाम को 5 बजे के शो में हम दोनों चले गये। मैनेजर ने अनिल को स्पेशल क्लास में बैठाया… मुझे भी बड़ा गर्व सा हुआ कि मैं किसी बड़े अधिकारी के साथ फ़िल्म देखने आई हूँ। मैनेजर ने अपने नौकर से हमारी सेवा करने का आदेश दे दिया था, वो बीच में आ कर हमे कोल्ड ड्रिंक आदि दे जाता था।
फ़िल्म चल रही थी। मुझे अचानक अहसास हुआ कि अनिल ने जैसे मुझे छुआ था।
मुझे लगा कि यह सम्भव ही नहीं है। तभी दुबारा उसका हाथ मेरे हाथों से धीरे से टकराया।
मुझे झुरझुरी सी हुई, मैंने तिरछी आंखो से उन्हें देखा।
वो भी मुझे चुपके चुपके देख रहे थे।
मुझे लगा कि शायद वे मेरे अकेलेपन का फ़ायदा उठा रहे हैं।
मर्दों की एक फ़ितरत यह भी होती है कि एक बार कोशिश तो कर लो, क्या पता लड़की पट जाये… नहीं तो कुछ समय के लिये नाराज हो जायेगी और क्या?
नहीं… नहीं… ऐसा नहीं हो सकता… मेरे जैसी छोटे तबके वाली लड़की के साथ तो कभी नहीं… फिर ऐसा क्यूँ?
क्या मेरे रूप लावण्य के कारण, या मेरी सेक्स अपील के कारण। फिर वो कुंवारा भी तो था … शायद जवानी के जोश में …
मुझे सावधान रहना था कि कहीं मुझसे कोई भूल ना हो जाये। पर फिर एक बार और उसकी अंगुलियों का स्पर्श मेरे हथेली पर हुआ … मैं तो जैसे जड़ सी हो गई …
मुझसे अपना हाथ हिलाने की शक्ति भी जैसे जवाब दे गई। मुझे यह मालूम हो गया था कि अनिल ये सब जानबूझ कर कर रहा है। मेरे चेहरे पर पसीना आ गया था।
वो मुझसे क्या चाहता है … क्या मालूम?
उसने जब मेरा विरोध नहीं देखा तो उसकी हिम्मत बढ़ गई।
उसकी अंगुलियां मेरी हथेली पर दबाव डालने लगी। मुझे जैसे लकवा मार गया था। मैं चाह कर भी अपना हाथ नहीं खींच पा रही थी।
अचानक उसका हाथ मेरे हाथों पर आकर ठहर गया और मेरे अंगुलियों को पकड़ने लगा।
मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा… मेरी जिन्दगी में किसी पहले पराये मर्द का स्पर्श मेरे मन में बेचैनी पैदा कर रहा था।
अब उसका हाथ मेरे हाथों को दबाने और सहलाने में लगा था।
मैंने हिम्मत बांधी और अपना हाथ खींच लिया। मैं अपने पल्लू से माथे का पसीना पोंछने लगी। उसका हाथ एक बार फिर मेरी जांघों से स्पर्श करने लगा। मेरे तन में जैसे बिजलियाँ तड़क उठी। मैं कांप सी गई।
शायद मेरी ये कंपकंपी उसने भी महसूस की। मुझे सामान्य महसूस कराने के लिये वो मेरे से बातें करने लगा।
उसका हाथ ज्योंही मेरे जांघो को सहलाने लगा, मुझे घबराहट होने लगी थी।
तभी मेरी बच्ची की नींद खुल गई। मैंने उसे जल्दी से अपनी गोदी में लिया।
उधर अनिल भी बेचैन सा होने लगा। कुछ ही देर में बच्ची फिर से सो गई। पर जाने क्यूँ अब मेरा दिल भी बेचैन सा होने लगा था। मुझे अनिल के हाथों मे जादू सा लगा। मैंने सोच लिया था कि इस बार उसका हाथ मैं थाम लूंगी … और उसे भी अपनी दिलचस्पी दिखाऊंगी।
उसके बढ़ते हाथों का इस बार मैंने स्वागत किया और उसकी अंगुलियां मेरे हाथों में खेलते समय मैंने उन्हें थाम लिया।
मैंने अपनी मौन स्वीकृति दे दी थी। उसने मेरा हाथ पकड़ कर अपनी सीट पर ले लिया था और उसे सहला रहा था। एक बार तो उसने चूम भी लिया था।
मैंने धीरे से उसके कंधे पर अपना सर रख दिया। उसने अपना एक हाथ मेरे गले से लिपटा कर अपनी ओर मुझे खींच लिया।
आह… कितना प्यारा माहौल था … मुझे लगा कि जैसे मैं उसे प्यार करने लगी हूँ। उसके होंठों ने मेरे गाल चूम लिये। मैंने अपनी बड़ी बड़ी आंखें खोल कर उसे आसक्ति से निहारा।
उसका चेहरा मेरे होंठों की तरफ़ बढ़ने लगा। मेरे कोमल पत्तियों जैसे अधर कंपकंपा उठे … थरथरा उठे… और एक दूसरे से चिपक गये।
जाने कितनी देर तक हम ऐसे ही एक दूसरे को चूमते रहे … फिर एक दूसरे को प्यार से निहारते हुये अलग हो गये। सारी फ़िल्म में यही सब कुछ चलता रहा।
रात को नौ बजे फ़िल्म समाप्त हुई तो हम घर लौट आये। रास्ते भर मेरी नजरें शर्म से झुकी रही। अनिल तो बहुत खुश लग रहा था पर फिर भी चुप था। रास्ते भर कोई बात नहीं हुई।
रात का भोजन करने के बाद हम दोनों छत पर आ गये थे।
मैं अपनी साड़ी उतार कर मात्र पेटीकोट में थी, ब्रा भी हटा दी थी।
बच्ची सो चुकी थी। वो चांदनी रात में सफ़ेद पजामे में बड़ा ही मोहक लग रहा था।
काफ़ी देर तक तो हम चुपचाप खड़े रहे …
उसी ने चुप्पी तोड़ी- फ़िल्म कैसी लगी…?
‘जी फ़िल्म में तो जी ही नहीं लगा… मेरा ध्यान उधर नहीं था।’ मैंने अपनी सच्चाई बयान कर दी थी।
‘सच कहती हो, मन तो मेरा भी कही ओर था…’ वो हंस कर बोला।
‘हॉल में कोई देख लेता तो…’
‘कौन देखता भला, इतनी पुरानी फ़िल्म कोई नहीं देखता है… एक बात कहूँ?’
मैं एकदम घबरा सी गई। मुझे मालूम था कि वो कहने वाला है।
‘जी… जी… कहिये?’
‘मुझे नहीं कहना चाहिये लेकिन दिल से मजबूर हूँ… आप मुझे … ओह कैसे कहूँ !’
मैं शर्म से पानी पानी हुई जा रही थी। मेरा दिल जैसे उछल कर गले में आ गया था।
‘जी … क्या कहना है?’
मैंने अपना मुख पीछे कर लिया। वो मेरे पीछे आ गये और मेरे कंधों पर हाथ रख दिया।
‘आ…आ… आप बहुत अच्छी हैं !’ उसकी आवाज में कम्पन था।
‘जी… जी…’ मैं हकला सी गई।
‘सोना, मैं आपसे… उफ़्फ़ कैसे कहूं !’
मैंने पलट कर अनिल को प्रेम से देखा और कहा- जी… आप क्या कहना चाहते है… कहिये ना … मैं इन्तज़ार कर रही हूँ।’
‘बस एक बार जैसे हॉल में किया था वैसे…’
‘क्या … कहिये ना…’
उसने असंमजस में मुझे अपनी तरफ़ खींच लिया। मैं थोड़ा सा कुलबुलाई और उसे दूर हटा दिया।
‘ये क्या कर रहे है आप…’ मैं शर्म से फिर से पानी पानी होने लगी थी। मेरा मन उनकी बाहों में समाने को करने लगा था। मैंने अपना दिल मजबूत कर लिया कि अगली बार उसने कुछ किया तो मैं स्वयं ही उससे लिपट जाऊंगी।
‘वही जो हॉल में किया था… बस एक बार !’ उसने फिर से मुझे अपनी बाहों में खींच लिया। दिल तो पागल है ना… मचल उठा।
कैसे रोकूँ अपने आप को… मैं अपने दिल से बेबस हो गई। मैं उसकी बाहों में झूल गई। उसका मुख मेरे चेहरे के करीब आ गया। मैंने अपनी आंखें बन्द कर ली। दोनों के तड़पते हुये अधर मिल गये। मेरा शरीर विचित्र सी आग में जल उठा।
उसके हाथ मेरी पीठ पर गड़ गये और यहां-वहां दबाने लगे। मेरे हाथ भी उसकी बनियान को जैसे हटा देना चाहते थे।
उसका बलिष्ठ शरीर दबाने में मुझे बहुत आनन्द आ रहा था।
तभी… हाय रे … ये क्या … उसका कड़क लण्ड मेरी योनि द्वार के समीप टकराने लगा। मुझे नीचे एक बहुत ही दिल को भाने वाली गुदगुदी सी हुई। वो मेरी चूत पर गड़ता ही गया… मुझे लगा … कही ये मेरे शरीर में प्रवेश ना जाये।
‘अनिल … बस करो…’
‘एक बात कहूं … मानोगी?’
‘एक क्या, सौ बात कहो… सब मानूंगी !’ मैंने शर्माते हुये कहा।
‘हॉल में मैं कुछ करना चाहता था… पर नहीं कर पाया … प्लीज करने दो !’
‘क्या … बोलो ना !’
‘बस आप चुप हो जायें … मुझे करने दो।’
उसने मुझे दीवार से सटा दिया और धीरे से मेरे उन्नत उरोजों पर अपना हाथ रख दिया।
मेरा जिस्म कांप गया।
उसके हाथ मेरे ब्लाउज के ऊपर से ही चूचियों को दबाने लगे। बटन एक के बाद एक खुलते गये।
उसने हाथ उरोजों पर गोल गोल घूमते रहे, सहलाते रहे, दबाते रहे … मेरी चूत में से ये सब बहुत तेजी से असर कर रहा था। उसमें से प्रेम रस की बूंदें चू पड़ी थी। चूत में गुदगुदी भरी मिठास तेज होने लगी थी।
मैं निश्चल सी बुत बनी हुई खड़ी रही। उसका पजामा बाहर की ओर तम्बू सा तन गया।
मैं उससे लिपट पड़ी। मेरा हाथ अनजाने में ही उसके लण्ड की ओर बढ़ गया। आह … मेरे ईश्वर … कैसा लोहे जैसा कड़ा, जाने घुसने पर क्या कर डालेगा?
लण्ड दबते ही अनिल के मुख से आह निकल पड़ी।
‘सोना, कैसा लग रहा है ना … मुझे तो बहुत आनन्द आ रहा है।’
‘हाय रे … तुम कितने अच्छे हो अनिल … ‘
‘सोना, बस कुछ मत कहो … मुझे तो जैसे स्वर्ग मिल गया है।’
उसने मेरे चूतड़ों पर हाथ फ़िराना चालू कर दिया, मेरे पीछे के उभारों को दबाने लगा, मेरे चूतड़ों के बीच की दरार में अपनी अंगुली घुसाने लगा। उसके चूतड़ों को इस तरह से दबाने से मुझे बहुत आनन्द आने लगा। मेरे चूतड़ को वो हाथ से पकड़ता और ऊपर नीचे हिला डालता था।
मुझे जिंदगी में मेरे पति ने कभी ऐसा कभी नहीं किया था। वो अपना लण्ड भी मेरे गाण्ड में गड़ा देता था। उसके लण्ड के दबाव से मेरी खूत में खुजली उठने लग जाती थी।
‘सोना, देखो रात का समां है … कोई देखने, सुनने वाला नहीं है … प्लीज एक बार मेरा लण्ड थाम लो … प्लीज, मुझे बहुत आनन्द आयेगा !’
उसने अलग होते हुये अपने पजामे में से अपना लण्ड बाहर निकाल लिया।
हाय रे … ये क्या … इतना सुन्दर … मैं उससे फिर लिपट गई और हाथ नीचे बढ़ा कर उसे थाम लिया।
उफ़्फ़्फ़ ! कितना गरम, कितना नरम और ये सुपाड़ा !!! मेरी जान ले लेगा … मैंने छत की पेरापिट की दीवार पर उसे टिका कर लण्ड को हाथ में लेकर उसकी चमड़ी डण्डे के ऊपर उघाड़ दी। चांदनी रात में उसका सुपाड़ा चमक उठा।
मैंने उसे अपनी मुठ में भर लिया और धीरे धीरे उसका हस्त मैथुन करने लगी।
वो मस्ती में तड़प उठा। उसकी दोनों हाथों की मुठ्ठियां भिंच गई।
मैं उसके सामने खड़ी बड़े जोश से लण्ड मल रही थी। उसकी तड़प मेरे दिल को छू रही थी। उसके चूतड़ भी मुठ मारने से हिल हिल कर मेरा साथ दे रहे थे।
‘सोना … मार देगी रे तू तो आज…’
‘ये तो हम हॉल में नहीं कर सकते थे ना … वही तो कर रही हूँ… कैसा मजा आ रहा है … है ना?’ मेरे मुख से उसी की भाषा निकल पड़ी।
शेष कहानी दूसरे भाग में ! 1441
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