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लेखिका: दिव्या रत्नाकर सम्पादिका एवम् प्रेषक: तृष्णा लूथरा
अन्तर्वासना की पाठिकाओं एवम् पाठकों को तृष्णा का अभिनंदन स्वीकार करने का निवेदन है। मेरे द्वारा सम्पादित श्रीमती सरिता की रचना माँ की अन्तर्वासना ने अनाथ बेटे को सनाथ बनाया को पढ़ कर अनेक श्रोताओं के उत्साह-वर्धक टिप्पणियाँ एवम् विचार मिले। उन सभी श्रोताओं को व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देने में असमर्थ रहने के कारण मैं उन सब से क्षमा याचना करते हुए अन्तर्वासना के माध्यम से धन्यवाद देना चाहूंगी। मैं आशा करती हूँ कि भविष्य में भी आप सब मेरे द्वारा लिखित एवम् सम्पादित रचनाओं पर अपने विचार एवम् टिप्पणियाँ अवश्य भेजते रहेंगे।
आप अन्तर्वासना पर प्रकाशित होने वाली रोचक एवम् मनोरंजक तथा अरोचक, रसहीन एवम् शुष्क रचनाओं को पढ़ कर अवश्य ही आनंदित हो रहे होंगे। मेरी यह नई प्रस्तुति श्रीमती दिव्या रत्नाकर के जीवन के उतार-चढ़ाव पर आधारित एक रचना है जिसे मैं सम्पादित करके आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ।
लगभग छह माह पहले मेरी मुलाकात श्रीमती दिव्या रत्नाकर से तब हुई जब मैं दाँत के दर्द से ग्रसित डॉक्टर अमोल रत्नाकर के दंत चिकित्सा क्लिनिक पर गयी थी। दिव्या उस क्लिनिक की देखभाल और वहाँ आने वाले रोगियों के पंजीकरण करना तथा उन्हें क्रम अनुसार डॉक्टर रत्नाकर के पास भेजने के कार्य संभालती थी।
हमारी पहली भेंट में ही हम दोनों में मित्रता हो गयी तथा दिव्या से बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि वह डॉक्टर रत्नाकर की पुत्रवधू थी। क्योंकि अपने दाँतों के उपचार के लिए मुझे उनके क्लिनिक में आठ बार जाना पड़ा जिस अवधि में मेरे और दिव्या के बीच अच्छी मित्रता हो गयी। लगभग बारह सप्ताह तक उपचार कराने के बाद जब मुझे आराम मिल गया तब मैंने दंत क्लिनिक में जाना तो बंद कर दिया लेकिन फ़ोन पर मेरी और दिव्या की अकसर बात होती रहती थी।
शुरू में तो दो या तीन दिन छोड़ कर बात होती थी लेकिन जैसे ही हमारी मित्रता गहन होती गयी वैसे ही हमारी बातचीत की आवृत्ति भी प्रतिदिन हो गयी। हर रोज़ जब भी दिव्या खाली होती तब वह मुझे फ़ोन करती और अगर मैं भी खाली होती तो हम दोनों बहुत देर तक बतियाती रहती।
इन्हीं बातों ही बातों में एक दिन दिव्या ने पूछ लिया कि जब मैं दंत क्लिनिक पर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही होती थी तब मैं अपने टैबलेट पर क्या करती रहती थी। क्योंकि क्लिनिक में बारी आने में काफी समय लगता था इसलिए मैं अपना टैबलेट साथ ले जाती थी जिस पर से पाठकों के संदेशों के उत्तर देती रहती थी।
मैंने यह बात दिव्या से छिपाते हुए उसे कह दिया था कि मैं तो समय बिताने के लिए उस पर गेम्स खेलती रहती थी। इस तरह तीन माह बीतते पता नहीं चला और एक दिन जब मैं अपने लैपटॉप पर पाठकों के संदेशों के उत्तर दे रही थी तब अचानक ही दिव्या मेरे घर आई। मैंने अपना लैपटॉप के ढक्कन को बंद करके पास ही रख दिया और दिव्या को बिठा कर उसका हालचाल पूछा तथा कुछ देर तक बातें करने के बाद उसके लिए चाय बना कर लाने रसोई में चली गयी।
दस मिनट के बाद जब मैं चाय बना कर लायी तो देखा कि दिव्या मेरे लैपटॉप को खोल कर उसमें से कुछ पढ़ रही थी। मेरे दिमाग में यही था कि मैंने लैपटॉप बंद करने से पहले अपने मेल आई डी को बंद कर दिया था इसलिए निश्चिंत होते हुए सोचा कि शायद दिव्या कोई गेम खेल रही होगी। मुझे हैरानी तब हुई जब दिव्या ने एक साथ कुछ प्रश्न पूछे- आपने कभी बताया नहीं कि आप लेखिका भी हैं। आपके पास तो बहुत सारे प्रशंसकों के सन्देश आते हैं। आप किस विषय पर लिखती हैं?
दिव्या द्वारा अकस्मात ही किये गए प्रश्नों के कारण कुछ देर के लिए मैं स्तब्ध हो गयी लेकिन शीघ्र ही अपने को नियंत्रण में करते हुए कहा- अरे, मैं कोई लेखिका नहीं हूँ। बस ऐसे ही जो कुछ मन में आता है वह लिख देती हूँ जिसे कुछ लोग पढ़ कर अपने विचार एवम् टिप्पणियाँ भेज देते हैं। मेरी बात सुनते ही दिव्या बोली- नहीं… आप मुझसे कुछ छुपा रही हैं। मुझे भी तो बताओ कि आप ऐसा क्या लिखती हो? कुछ तो रोचक और मनोरंजक लिखती होंगी जिसे पढ़ कर आपके प्रशंसक हर दिन आपको पचासों सन्देश भेज देते हैं। मैं भी आपके द्वारा लिखे लेखों के पढ़ना चाहूंगी।
मैंने उत्तर में कहा- दिव्या, मैं कोई लेख नहीं लिखती। मैं तो बस लोगों की ज़िन्दगी में घट रही वास्तविक घटनाओं के विवरण को सम्पादित करके एक रचना के रूप में इन्टरनेट पर प्रकाशन के लिए अग्रसर करती हूँ। यह तो पाठकों की उदारता है जो उन रचनाओं को पढ़ कर अपने विचार एवम् टिप्पणियाँ भेज देते हैं। क्योंकि दिव्या ने मेरे मेल आई डी में आये कुछ अभद्र एवम् अर्थहीन सन्देश भी पढ़ लिए थे इसलिए वह मेरी सारी बात सुनने के बाद भी नहीं मानी और जिद करती रही।
काफी टाल-मटोल के बाद विवश होकर मुझे दिव्या को अन्तर्वासना के बारे में बताना पड़ा और अपनी रचनाओं का वेबसाइट लिंक भी देना पड़ा। इसके बाद चाय पीते हुए कुछ देर तक मुझसे सामान्य बातें करने के बाद दिव्या अपने घर चली गयी और अगले दो दिनों तक हमारे बीच कोई बात नहीं हुई।
दो दिनों के बाद दिव्या ने मुझे फ़ोन करके कहा- दीदी, मैंने पिछले दो दिनों में आपके द्वारा लिखी कुछ रचनाएं पढ़ी हैं। सच में आप तो बहुत अच्छा लिखती हैं क्योंकि जितनी भी रचनाएं मैंने पढ़ी हैं वे मुझे बहुत ही अच्छी लगी हैं। मेरे मन में उन रचनाओं के बारे में कुछ प्रश्न है जिन्हें मैं आपसे पूछना चाहती हूँ। मैंने उत्तर में कहा- ठीक है, तुम जब भी खाली हो तब मेरे घर पर आ जाना। मेरा उत्तर सुन कर दिव्या बोली- दीदी, अगले तीन चार दिन तो मुझे खाली समय नहीं मिलने वाला क्योंकि क्लिनिक पर बहुत काम है। आप ही किसी दिन क्लिनिक पर या फिर शाम को मेरे घर पर आ जाओ।
इस बात के लगभग एक सप्ताह के बाद दिव्या ने फ़ोन किया- दीदी, डॉक्टर रत्नाकर आज बाहर गए हुए है और क्लिनिक बंद है इसलिए दोपहर को आप जब भी खाली हो तब मेरे घर आ सकती हो? उस दिन मेरे पास भी कोई खास काम नहीं था इसलिए मैंने उसे हाँ कह दी और दोपहर का खाना खाने के बाद लगभग दो बजे मैं उसके घर पहुँच गई।
शुरू के दस मिनट तक तो हमारी बातें सिर्फ सामान्य बातों तक ही सीमित रही लेकिन उसके बाद दिव्या मेरी रचनाओं के बारे में चर्चा करने लगी। वह मेरे द्वारा लिखित एवम् सम्पादित दस रचनाएं पढ़ चुकी थी और वह उनकी सत्यता एवम् मौलिकता के बारे में अपने प्रश्नों का निवारण करती रही।
चार बजे दिव्या चाय बना कर लायी और उसे पीते हुए उसके कहा- दीदी, मेरे जीवन में भी एक घटना घटित हुई थी और मैं चाहती हूँ कि आप उसे भी लिख कर अन्तर्वासना पर प्रकाशित करवा दें। मैंने कहा- दिव्या, मेरे पास इतना खाली समय नहीं होता कि मैं तुम्हारे जीवन में घटित घटना का वर्णन एक रचना के रूप में लिख सकूँ। अच्छा होगा कि अगर तुम अपनी उस घटना का पूर्ण विवरण विस्तार से लिख कर दे दो।
दिव्या बोली- दीदी, मुझसे स्कूल-कॉलेज में निबंध तो ढंग से लिखे नहीं जाते थे तो मैं रचना कैसे लिख पाऊंगी? मैंने दिव्या को समझाते हुए कहा- दिव्या, मुझे तुम्हारे जीवन में घटित घटना का पूर्ण ज्ञान नहीं है इसलिए हो सकता है कि मैं उस घटना के कुछ महत्वपूर्ण भाग को रचना में उजागर नहीं कर सकूँ। अगर तुम अपनी रचना को खुद लिखोगी तो वह उस घटना की हर छोटी से छोटी बात तथा उस समय के वातावरण का सही वर्णन कर पाओगी। क्योंकि वह घटना तुम्हारे साथ घटित हुई थी इसलिए तुम अपनी यादें एवम् अनुभूति जल्दी से लिख सकती है और इस प्रकार पूर्ण रचना शीघ्र ही लिखी एवम् सम्पादित हो सकेगी।
मैंने उसे यह तर्क भी दिया कि अगर मैं उस घटना को लिखूंगी तो उसके लिए मुझे हर दिन अनेकों बार उससे सम्पर्क करना पड़ेगा जिससे काफी समय बेकार जायेगा। मेरी बात सुन कर जब दिव्या ने अपनी रचना को खुद लिखना स्वीकार कर लिया तब मैंने उसे रचना को लिखने के कुछ नियम एवम् विधि से परिचित करा दिया।
उस दिन के बाद रोजाना दिव्या का फोन आता और कुछ देर सामान्य बातें होती तथा बाकी समय उसकी रचना के बारे में बातें होती रहती। लगभग तीन सप्ताह के बाद दिव्या ने उसके द्वारा लिखी रचना को मेरे पास भेजा और उसे पढ़ कर मैंने उससे बहुत से स्पष्टीकरण मांगें तथा कुछ सुझाव भी दिए।
दो सप्ताह के बाद दिव्या ने मेरे द्वारा पूछे गये स्पष्टीकरण के उत्तर भेजे तथा मेरे सुझावों के अनुसार उस रचना में बदलाव करके भेजा।
दिव्या द्वारा भेजी गयी अपक्व पांडुलिपि में भाषा एवम् व्याकरण का सुधार, त्रुटियों को सम्पादित तथा घटना के विवरण को क्रमानुसार करने के पश्चात उभर कर आई निम्नलिखित रचना आपके लिए प्रस्तुत है।
अन्तर्वासना की पाठिकाओं एवम् पाठकों का हार्दिक अभिनंदन। मेरा नाम दिव्या है और मैं परिवार के निम्नलिखित सदस्यों के साथ भारत के बड़े राज्य में एक बहुत ही छोटे से कस्बे में अपने सास विहीन ससुराल में रहती हूँ। मेरे परिवार में कुल चार सदस्य हैं मेरे ससुर डॉक्टर अमोल रत्नाकर, मेरे पति आलोक रत्नाकर, मैं दिव्या और मेरा दो वर्षीय पुत्र ध्रुव।
मेरे पति के विदेश जाने के बाद पिछले ढाई वर्षों से मैं, मेरा दो वर्षीय पुत्र और तिरेपन वर्षीय ससुर उनके पूर्वजों के पुश्तैनी घर में ही रह रही हूँ। इस छोटे से कस्बे के मध्य में से गुज़रते राष्ट्रीय राजमार्ग पर हमारी एक पैतृक इमारत है जिसके भूतल में चार दुकानें हैं और ऊपर के तल पर हमारा घर है।
उस इमारत के पहले तल पर बने हमारे घर में एक बैठक एवम् भोजन कक्ष, दो शयन-कक्ष, एक रसोई, एक बाथरूम तथा एक स्टोर है। भूतल में चार दुकानों में से दो दुकानों में मेरे ससुर का दंत चिकित्सा क्लिनिक बना रखा है, तीसरी दुकान एक केमिस्ट को किराये पर दे रखी है और चौथी दुकान खाली पड़ी है।
आलोक से मेरा विवाह चार वर्ष पहले हुआ था लेकिन विवाह के तीन माह उपरान्त ही मेरी सास का निधन हो गया तथा इस सास विहीन घर के सभी कार्यों का बोझ मेरे कन्धों पर पड़ गया। सास के स्वर्गवास के बाद अपने पति, ससुर और घर की देख-रेख में इतनी व्यस्त रही कि पता ही नहीं चला कि कब डेढ़ वर्ष बीत गए।
मेरे विवाह को जब डेढ़ वर्ष ही हुए थे तब मेरे पति की कंपनी ने उनकी पदोन्नति कर के कंपनी कार्य के लिए तीन वर्षों के लिए विदेश भेज दिया। क्योंकि पति के विदेश जाने के समय मैं तीन माह से गर्भवती थी इसलिए बिलकुल नहीं चाहती थी कि वे विदेश जाएं, लेकिन उनकी तरक्की एवम् उज्ज्वल भविष्य में बाधा भी नहीं बनना चाहती थी इसलिए उन्हें जाने दिया।
पति के विदेश जाने के कुछ दिनों बाद ही दिन भर घर में अकेले रहना मुझे अखरने लगा तथा अपने प्यार से भरपूर जीवन में अचानक अकेलापन आने से बहुत सूनापन महसूस होने लगा। गर्भावस्था की स्थिति में मेरे शरीर में हो रहे बदलाव तथा आंतरिक हलचल को अपने पति की अनुपस्थिति में किसी और के साथ साझा नहीं कर पाने के कारण मैं खिन्न रहने लगी।
मेरे स्वभाव में आए बदलाव को देखकर मेरे ससुर ने मेरी मानसिक स्थिति को भांप लिया और मुझे व्यस्त रखने के लिए उन्होंने घर के साथ उनके क्लिनिक के देखरेख की ज़िम्मेदारी भी मुझे दे दी। दिन में मैं घर का काम करके जब भी खाली होती तब नीचे क्लिनिक में चली जाती और वहाँ आने वाले रोगियों के पंजीकरण करती तथा उन्हें क्रम अनुसार ससुर जी के पास भेज देती।
ससुर जी भी मेरा बहुत ख्याल रखते और मेरी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयत्न करते लेकिन मेरे एकाकीपन को दूर करने में अपने आप को हमेशा असमर्थ ही पाते।
घर के अथवा क्लिनिक के काम में अपने को व्यस्त रखते हुए मैंने अपनी गर्भावस्था के बाकी छह माह भी पूरे करे तथा प्रसव का समय करीब आते ही मुझे उसकी चिंता सताने लगी। मैंने अपने पति से बात करी और उन्हें प्रसव के दिनों में मेरे पास आने की विनती करी लेकिन उन्होंने छुट्टी नहीं मिलने के कारण अपनी असमर्थता बता दी।
प्रसव के अनुमानित तिथि से दो दिन पहले जब मैं परीक्षण के लिए ससुर जी के साथ लेडी डॉक्टर के पास गयी तब उसने जांच करने के बाद यह बताया कि बच्चे के पैदा होने में अभी समय है। मेरी जांच करने के बाद डॉक्टर ने योनि के द्वार को ढीला करने के लिए तीन तरह के व्यायाम एवम् खाने के लिए कुछ औषधियाँ लिख कर दीं तथा घर पर ही आराम करने के लिए कहा।
डॉक्टर का घर हमारी इमारत के साथ वाली चौथी इमारत में था और वह मेरे ससुर जी को बहुत ही अच्छे से जानती थी इसलिए उसने एक सप्ताह बाद फिर दिखाने के लिए कहा। जब ससुर जी ने डॉक्टर से पूछा कि अगर समय असमय आपात स्थिति में क्या करें तब उसने कह दिया कि तब वह मुझे उसके घर पर भी दिखा सकते हैं।
घर वापिस आने के बाद ससुर जी ने मुझे क्लिनिक में काम करने से मना कर दिया और घर पर ही आराम करने के लिए कहा। खाना बनाने एवम् रसोई के काम तथा घर की सफाई आदि के लिए एक नौकरानी थी जिसे आदेश देकर मैं काम कराती थी इसलिए अधिकतर आराम करने लगी।
कहानी जारी रहेगी. [email protected]
कहानी का अगला भाग: सास विहीन घर की बहू की लघु आत्मकथा-2
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